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________________ .२७० तत्वार्यश्लोकवार्तिके. कुतस्तर्हि त्रिकालानुयायी द्रव्यं सिद्धमित्याहः किसीका प्रश्न है तो बतलाओ कि तीनों कालमें अन्वय रखनेवाला द्रव्य कैसे सिद्ध है ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर आचार्य महाराज उत्तर कहते हैं:-... अन्वयप्रत्ययात्सिद्धं सर्वथा बाधवर्जितात् ।। तद्रव्यं बहिरन्तश्च मुख्यं गौणं ततोऽपरम् ॥ ६६ ॥ सभी प्रकार बाधकप्रमाणोंसे रहित हुये अन्वय ज्ञानसे वे शरीर आदि बहिरंग और आत्मा स्वरूप अन्तरंग द्रव्य तीनों कालमें ओतप्रोत हो रहे मुख्य द्रव्यसिद्ध हैं तथा उनसे भिन्न आरोपित किया गया गौण द्रव्य है। तदेवेदमित्येकत्वप्रत्यभिज्ञानमन्वयप्रत्ययः स तावज्जीवादिप्राभृतज्ञायिन्यात्मन्यनुपयुक्ते जीवाद्यागमद्रव्येऽस्ति । य एवाहं जीवादि प्राभृतज्ञाने स्वयमुपयुक्तः प्रागासंस एवेदानीं तत्रानुपयुक्तो वर्ते पुनरुपयुक्तो भविष्यामीति संप्रत्ययात् ।। " यह वही है, यह वही है " इस प्रकार एकत्वको जाननेवाला प्रत्यभिज्ञान अन्वयज्ञान है, वह ज्ञान जब कि जीव, सम्यग्दर्शन, आदि शास्त्रोंको जाननेवाले किन्तु वर्तमानमें उपयुक्त नहीं ऐसे जीव आगमद्रव्य या सम्यक्त्व आगमद्रव्यरूप आत्मामें तो अवश्य विद्यमान है । क्योंकि जो ही मैं जीव आदिक शास्त्रोंको जानने पहिले स्वयं उपयोगसहित था, वही मैं इस समय उस शास्त्रज्ञानमें उपयोगरहित होकर वर्त रहा हूँ और पीछे फिर शास्त्रज्ञानमें उपयुक्त हो जाऊंगा । इस प्रकार द्रव्यपनेकी लडीको लिये हुए भले प्रकार ज्ञान हो रहा है । अर्थात् एक विद्वान् श्रीत्रिलोकसारके अनुसार नन्दीश्वरद्वीपकी रचनाको जान चुका है, किन्तु इस समय अष्टसहस्रीको पढ रहा है। फिर दूसरे दिन नन्दीश्वरद्वीपको जान लेवेगा । इस प्रकार चित्तवृत्तिके अनुसार उपयोगसहितपना और उपयोगरहितपना देखा जा रहा है। न चायं भ्रान्तः सर्वथा बाधवर्जितत्वात् । न तावदस्मदादिप्रत्यक्षेण तस्य बाघस्तद्विषये स्वसंवेदनस्यापि विशदस्य वर्तमानपर्यायविषयस्याप्रवर्तनात् । देखो, यह समीचीन प्रत्यय भ्रमरूप नहीं है । क्योंकि सभी प्रकार बाधाओंसे रहित है। तहां हम सरीखे साधारण जीवोंके प्रत्यक्ष करके तो उस सम्यग्ज्ञानकी बाधा नहीं होती है । क्योंकि उस सम्यग्ज्ञानके विषयमें वर्तमान पर्यायोंको ही विषय करनेवाले विशद स्वरूप स्वसंवेदनकी भी जब प्रवृत्ति नहीं है तो फिर विचारे स्पर्शन आदि इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए प्रत्यक्षोंकी तो क्या चलेगी। भावार्थ-नित्य द्रव्यको सिद्ध करनेवाले प्रत्यभिज्ञानकी बाधा प्रत्यक्षोंसे नहीं हो सकती है।
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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