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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
वही है ऐसी बुद्धि हो जाती है । मुख्य आकारोंसे शून्य केवल वस्तुमें यह वही है, ऐसी स्थापना कर लेना फिर दूसरी असद्भाव स्थापना है । क्योंकि मुख्य पदार्थको देखनेवाले भी जीवकी दूसरोंके उपदेशसे ही यह वही है, इस प्रकार वहां समीचीनज्ञान होता है । असद्भाव स्थापनामें परोपदेशके विना यह वही है ऐसा सम्यग्ज्ञान नहीं होता है । जैसा कि चावलोंमें जिनेन्द्रदेवकी स्थापनाके अवसरपर देखा गया है। यद्यपि अमूर्तभावोंमें भी अमूर्त अन्य भावोंकी स्थापना हो सकती है, किन्तु साधारण बुद्धिवाले जीवोंको उससे प्रतीति होना दुर्लभ है। तभी तो पञ्चपरमेष्ठी भगवान्के असाधारण गुणोंकी गृहस्थ या सामान्य मनुष्यमें स्थापना करना निषिद्ध है । हां ! इन्द्र, लौकान्तिक, आदिकी स्थापना कुछ समय तक रागी द्वेषी जनोंमें कर ली जा सकती है । आकाशमें धर्मद्रव्यकी स्थापना करनेका कोई फल नहीं।
सादरानुग्रहकांक्षाहेतुत्वात्प्रतिभिद्यते ।
नाम्नस्तस्य तथाभावाभावादनाविवादतः ॥ ५५॥ ___ वह स्थापना आदर करना, अनुग्रह करानेकी आकांक्षा रखना आदि हेतुपने करके नामनिक्षेपसे न्यारी होजाती है, क्योंकि उस नामनिक्षेपके अनुसार आदर, निरादार, अनुग्रह, निग्रह आदिके तैसे भाव नहीं हैं । इस सिद्धान्तमें मीमांसक, पौराणिक, नैयायिक, श्वेतांबर आदि किसीका भी विवाद नहीं है । किसी व्यक्तिका नाम महावीर रख देनेसे उसमें वर्धमान स्वामीकी प्रतिमाके सदृश आदर सत्कारके भाव नहीं होते हैं । किन्तु एक सम्राज्ञीकी प्रतिमाके मुखपर काला लेप करनेवाला अपराधी है । सम्राज्ञीके नामको धारण करनेवाली लडकीके मुखपर तो क्या ? सम्पूर्ण शरीरपर भी लेप कर देना वैसा अपराध नहीं है । महादेवके उपासक महादेवकी पिण्डीका निरादर करनेसे कुपित होवेंगे, किन्तु महादेव नामक पुरुषको गाली देनेसे क्षुब्ध न होंगे।
स्थापनायामेवादरोऽनुग्रहाकांक्षा च लोकस्य न पुनर्नाम्नीत्यत्र न हि कस्यचिद्विवादोऽस्ति येन ततः सा न प्रतिभिद्यते । नाम्नि कस्यचिदादरदर्शनान्न ततस्तद्भेद इति चेन्न, खदेवतायामतिभक्तितस्तन्नामकेऽर्थे तदध्यारोपस्याशुवृत्तेस्तत्स्थापनायामेवादरावतारात् ।
लौकिक जनोंका स्थापनामें ही आदर और अनुग्रह करानेकी आकांक्षा रखना है, किन्तु नाममें नहीं, इस विषयमें किसी भी वादीका विवाद नहीं है, जिससे कि वह स्थापना नामनिक्षेपसे भिन्न न होती । यदि कोई यों कहे कि ऋषभ, महावीर, बाहुबली, आदि नामोंमें भी किसीका आदर देखा जाता है, तब तो नामसे स्थापनाका भेद नहीं हुआ । यह तो नहीं कहना, क्योंकि अपने इष्ट देवतामें अत्यन्त भक्तिके वशसे उस नामवाले अर्थमें अतिशीघ्र ही उस देवताकी मूर्तिका अध्यारोप ( स्थापन ) कर लिया जाता है । अतः उस देवताकी स्थापनामें ही आदर उतर आता है, नाममें नहीं।