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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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तदनेन नाम्नि कस्यचिदनुग्रहाकांक्षाशंका व्युदस्ता, केवलमाहितनामके वस्तुनि कस्यचित्कादाचित्की स्थापना कस्यचित्तु कालान्तरस्थायिनी नियता । भूयस्तथा संप्रत्ययहेतुरिति विशेषः।
तिस कारण इस उक्त कथनसे किसीकी इस शंकाका भी खण्डन हो जाता है कि उस नामवाले व्यक्तिमें किसी भक्तकी अनुग्रह करानेकी आकांक्षा हो जाती है। अर्थात् महावीर नामके पीछे शीघ्र ही महावीरजीकी प्रतिमाका स्मरण होकर उस प्रतिबिम्बसे ही अनुग्रह करानेकी आकांक्षा हुयी है कोरे नामसे नहीं । यहां विशेषता केवल इतनी ही है कि उस नामको धारण करनेवाली वस्तुमें किसी पुरुषके तो कभी कभी होनेवाली कुछ कालतकके लिये स्थापना हो जाती है और किसी पुरुषके बहुत कालतक स्थित रहनेवाली वह स्थापना नियत हो रही है जो कि बहुत बार तिसी प्रकार सम्यग्ज्ञान होनेमें कारण है । अर्थात् चावलोंमें देव शास्त्र गुरुकी अथवा लौकिक कार्योंके लिये सभापति, मन्त्रीपने आदिकी कुछ कालके लिये स्थापना कर ली जाती है । तथा जिन मंदिर में समवसरणकी प्रतिमामें त्रयोदश गुणस्थानवर्ती तीर्थकरकी स्थापना बहुत कालतक नियत रहती है ।
नन्वनाहितनाम्नोऽपि कस्यचिद्दर्शनेऽञ्जसा । पुनस्तत्सदृशे चित्रकर्मादौ दृश्यते स्वतः॥ ५६ ॥ सोऽयमित्यवसायस्य प्रादुर्भावः कथञ्चन । स्थापना सा च तस्येति कृतसंज्ञस्य सा कुतः ॥ ५७ ॥ नैतत्सन्नाम सामान्यसद्भावात्तत्र तत्त्वतः । क्वान्यथा सोयमित्यादिव्यवहारः प्रवर्तताम् ॥ ५८ ॥
यहां शंका है कि नहीं धरा गया है नाम जिसका ऐसे भी किसी पदार्थके देखनेपर पुनः शीघ्र ही उसके सदृश चित्रकर्म ( तस्बीर ) विशेष फल, विशेष पुष्प आदिमें यह वही है, इस प्रकारके निर्णयकी उत्पत्ति अपने आप होती हुयी देखी जाती है और वह किसी अपेक्षासे उसकी स्थापना अवश्य है । ऐसी दशामें जैनोंने नाम किये गये पदार्थकी ही वह स्थापना होती है यह कैसे कहा ? बताओ। आचार्य समझाते हैं कि सो यह शंका करना प्रशंसनीये नहीं है, क्योंकि वहां भी परमार्थरूपसे सामान्य नाम विद्यमान है। विशेषपनेसे भले ही न होवे, अन्यथा यानी सामान्यरूपसे भी नामके द्वारा निक्षेप न हुआ होता तो तत् शब्द्ध और इदम् शब्द करके यह वही है, इत्यादि व्यवहारोंकी प्रवृत्ति कहां होती ? अर्थात् सर्वनाम शद्बोंसे अथवा अवक्तव्य, अनुभवगम्य आदि शद्वोंसे नामनिक्षेप कर चुकनेपर ही स्थापनानिक्षेपकी प्रवृत्ति मानी गयी है।
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