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तत्त्वार्थचिन्तामाणः
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एक ही आत्माके निर्धन अवस्थासे धनिक बन जानेपर भावोंमें बड़ा परिवर्तन हो जाता है । इस प्रकार वह धनपना और प्रयोजनपना अनर्थ नहीं है, किंतु अर्थरूप ही है जिससे कि केवल अर्थके ग्रहण करनेसे ही उस धन और प्रयोजनरूप अर्थकी निवृत्ति हो जाना सिद्ध हो जाता। भावार्थ-- धन और प्रयोजन अर्थ हैं । इनका श्रद्धान करनेवाला भी सम्यग्दृष्टि बन जावेगा । इस अतिव्याप्तिके वारण करनेके लिये अर्थपदका विशेषण तत्त्व देना चाहिये। अब हम भी कहते हैं कि वे अर्थ तो हैं, किंतु मोक्षोपयोगी और तात्त्विकनेसे वे धन आदिक तत्त्वार्थ नहीं हैं। ___तथाभिधेये विशेषे अभावे चार्थे श्रद्धानं सम्यग्दर्शनस्य लक्षणमव्यापि प्रसज्यते, सर्वस्याभिधेयत्वाभावाद्यञ्जनपर्यायाणामेवाभिधेयतया व्यवस्थापितत्वादर्थपर्यायाणामाख्यातुमशक्तेरननुगमनात् सङ्केतस्य तत्र वैयाद् व्यवहारासिद्धर्नाभिधेयस्यार्थस्य श्रद्धानं तल्लक्षणं युक्तम् । ____ तैसे ही अर्थ शद्बके वाच्य यदि अभिधेय ( कहने योग्य ) या विशेष अथवा अभाव ये अर्थ किये जायेंगे और इन अर्थोंमें श्रद्धान करना सम्यग्दर्शनका लक्षण कहा जावेगा तो अव्याप्ति दोष हो जानेका प्रसंग होगा। क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव जब शद्वसे न कहने योग्य अर्थपर्यायोंका श्रद्धान कर रहा है, उस समय वह सम्यग्दृष्टि न कहा जावेगा। क्योंकि वह शद्वसे कहने योग्य अभिधेय पदार्थोंका श्रद्धान नहीं कर रहा है । संसारके सभी पदार्थ शद्वोंके द्वारा नहीं कहे जा सकते हैं। अनन्तानन्त पदार्थोमेंसे अनन्तवें भाग पदार्थ शद्बोंसे कहे जाते हैं। व्यञ्जनरूप मोटी मोटी पर्यायोंका ही शद्वोंसे निरूपण होना व्यवस्थित किया गया है। सूक्ष्म अर्थपर्यायोंको कहनेके लिये शब्दोंकी शक्ति नहीं है। कारण कि अनुगम नहीं हो पाता है अर्थात् " वृत्तिर्वाचामपरसदृशी" अन्य पदार्थोके सादृश्यको लेकर शब्दोंकी प्रवृत्ति हुआ करती है। जैसे कि बालकके सन्मुख किसी वृद्ध पुरुषने दूसरे व्यक्तिको यों कहा कि घडेको ले जाओ और गौको ले आओ ! इस शद्बको सुनकर ले जाना और ले आना रूप क्रियाओंसे युक्त द्रव्योंका परामर्श कर वह बालक घट शद्बकी वाचक शक्तिको बडा पेट और छोटी ग्रीवावाले मिट्टीके पात्रमें ग्रहण कर लेता है तथा गौ शद्बकी सींग, सास्ना (गल कम्बल चर्म ) वाले पशुमें वाचकशक्तिको ग्रहण कर लेता है । वही बालक दूसरे स्थानोंपर भी उस गौके सदृश अन्य गौओंमें भी गो शद्बका प्रयोग कर लेता है । शब्द बोलनेका फल भी दूसरे सदृश व्यक्तियों के जाननेमें उपयोगी है, जैसे कि रसोई घरमें देखे गये अग्निके साथ व्याप्तिको रखते हुए धूमका ग्रहण कर लेना, पर्वत आदि स्थानोंमें वह्निज्ञान करानेमें उपयोगी है। रसोई घरमें तो वह्नि और धूम दोनोंका प्रत्यक्ष हो ही रहा है । तैसे ही संकेतकालमें ग्रहण किया हुआ वाच्यवाचकसम्बन्ध भी भविष्यमें व्यवहारके समय उन सदृश व्यक्तियों या उसीकी स्थूल व्यञ्जनपर्यायोंके शाबोध करानेमें उपयोगी है। संकेतकालमें तो पदार्थोका प्रत्यक्ष ही हो रहा है । इस उक्त कथनसे सिद्ध होता है कि शद्बोंकी प्रवृत्ति सदृशपर्यायोंमें और पहिले जाने हुए वाच्यकी स्थूल पर्यायोंमें चलती है । जिन सूक्ष्म अर्थपर्या