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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
योंका प्रतिक्षण विलक्षण ही परिणमन होता है तथा संकेतकालमें जिन सूक्ष्मपर्यायोंका हमको प्रत्यक्ष ही नहीं है, उनमें शद्वकी योजनाका ग्रहण हम कैसे कर सकते हैं ? । एक काली गौमें गो शब्द्वका सङ्केत कर धौली, पाली, चितकबरी, कपिल, खण्ड, मुण्ड, शावलेय आदि मौ व्यक्तियोंमें भी यह गौ है, यह भी गौ है, और यह भी गौ ही है, इस प्रकार गौ शद्बोंकी प्रवृत्तिरूप अनुगम हो रहा है। किन्तु अनन्तसुख, सम्यग्दर्शन, चारित्र, अविभागप्रतिच्छेद, अधःकरण, एकत्ववितर्क आदि अर्थ - पर्यायोंका उन्हींमें या उनके सदृश दूसरी पर्यायोंमें ठीक अर्थको कहनेवाले शब्दोंका अन्वय रूप से अनुगम करना नहीं होता है । उन अर्थपर्यायोंमें " इस शद्वसे यह अर्थ समझ लेना चाहिये " ऐसा • संकेतग्रहण करना भी व्यर्थ पडेगा । जैसे कि कोई बाल्य अवस्था या युवावस्थाके सुखोंका शद्बके द्वारा ठीक ठीक ( न न्यून न अधिक ) निरूपण करना चाहे तो बडा पोथा बनाकर भी उसका प्रयत्न व्यर्थ जावेगा । सामायिक करते समय साधु महाराजको कैसा आनन्द प्राप्त होता है, वह शोंसे नहीं कहा जाता है । तीर्थ यात्रा करके, पात्रदान करके, अध्ययन करके जो अनिर्वचनीय सुख मिला है, · कञ्जूस या मूर्खके सन्मुख उस सुखका निरूपण सहस्रजिह्वावाला भी नहीं कर सकता है। उसका कारण यही है कि उन अर्थ पर्यायोंके वाचक शब्द ही संसारमें नहीं हैं । यदि बलात्कारसे कोई संकेतग्रहण करेगा तो उन वाच्य अर्थोकी तली तक नहीं पहुंच सकता है । एक चार वर्षकी बालिका अपनी युवती बहिनसे प्रश्न करे कि तुमको प्रतिगृह में क्या इसका उत्तर केवल चुप हो जाना ही है या " तू स्वयं समय पर सकता है । एवं सन्निपात रोगवाला अपने शारीरिक परम दुःखका किसी भी प्रकार शब्दोंसे निरूपण नहीं कर सकता है। तभी तो शरीरप्रकृति उसकी वचनशक्तिको मानो रोक देती है । अत: निर्णीत हुआ कि शके द्वारा मुख्य रूपसे कहे जाने योग्य संख्यात अर्थ और गौणरूपसे कहे जाने योग्य असंख्यात अर्थोसे अतिरिक्त अनन्तानन्त प्रमेयोंमें वाच्यवाचक व्यवहार होना सिद्ध नहीं है । इस कारण अभिधेयरूप अर्थके श्रद्धानको उस सम्यग्दर्शनका लक्षण करना युक्त नहीं है। क्योंकि सम्य-ग्दृष्टि जिस समय अपने आत्माका अनुभव करता है या अवाच्य अर्थपर्यायोंका विचार कर रहा है, उस समय उक्त लक्षण न घटनेसे अव्याप्ति दोष हो जावेगा ।
विशेष आनन्द प्राप्त होता है ? अनुभव कर लेगी " यह हो
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नापि विशेषस्य सामान्य श्रद्धानस्य दर्शनत्वाभावप्रसंगात् ।
तथा अर्थ शङ्खका विशेषण यदि तत्त्व न दिया जावेगा तो विशेषरूप अर्थका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन होगा। ऐसी दशा में सामान्य अर्थके श्रद्धानको सम्यग्दर्शनपनेके अभावका प्रसंग होजायगा । यहां भी अन्याप्ति दोष हुआ। क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव विशेषधर्मोके समान सामान्य अर्थोका भी श्रदान करता है। कारण कि सामान्य और विशेष दोनों ही वस्तुके तदात्मक अंश हैं ।
तथैवाभावस्यार्थस्य श्रद्धानं न तल्लक्षणं भावश्रद्धानस्यासंग्रहादव्याप्तिप्रसक्तेः ।