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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
क्रोधरूप परिणति हो जाती है । वह क्रोध आत्माके चारित्रगुणका विभाव परिणाम है । आत्माका क्रोवपर्यायके साथ तादात्म्यसम्बन्ध है । द्रव्य और पर्याय इन दोनोंके पिण्डरूप वस्तुको मुख्यरूपसे जाननेवाले प्रमाण करके आत्मा क्रोधी जाना जा रहा है। भले ही किसी देश तथा अन्य कालमें और वीतराग व्यक्तिको सुवर्णमें धनपने और प्रयोजनपनेका ज्ञान न हो, किंतु जिस मोही जीवको बडे हुए रागके कारण सुवर्णमें ममत्व हो रहा है, वह रागभाव तो आत्मासे दूर नहीं किया जासकता है। परनिमित्तसे होनेवाले भाव किसी संसारी जीवके दूसरे पकारसे उत्पन्न होते हैं । अन्य मुक्तोंके विभाव भाव होते ही नहीं हैं । तीसरे संसारीजीवोंके तीसरे प्रकारके ही भाव होते हैं अर्थात् गजमुक्ताको छोडकर गोंगचीमें धनपनेके भाव हो जाते हैं । अखण्ड ब्रह्मचर्य महाव्रत होनेके कारण वारिषेण मुनि महाराजके स्वकीय सुन्दरस्त्रियोंमें भी पुंवेद जन्य भाव नहीं हुए और पुष्पडालके कुरूप एकाक्षिणी स्त्रीके निमित्तसे पुंवेदका तीव्र उदय होनेपर रागभाव हो गये थे । इस प्रकार निमित्तनैमित्तिकसम्बन्ध अचिन्त्य हैं। किंतु जो भी कुछ राग, क्रोध भाव होते हैं, वे आत्माके वास्तविक परिणाम तो अवश्य ही कहे जावेंगे । स्वाभाविक न सही, आत्माके अतिरिक्त उनका उपादानकारण अन्य कोई नहीं है।
वस्तुस्वरूपं धनं प्रयोजनं वा न भवतीति चेत्, सत्यं, वैश्रसिकत्वापेक्षया तस्य वस्तुरूपत्वव्यवस्थानासम्भवात् । परोपाधिकृतत्वेन तु तस्य वास्तवत्वमनिषिद्धमेवेति नानर्थत्वं, येनार्थग्रहणादेव तन्निवर्तनं सिध्येत् ॥
यदि वे कोई यों कहें कि जीवोंकी रागद्वेषसे सुवर्णमें धनपने और प्रयोजनपनेकी बुद्धि भलें ही हो जाये और तदनुसार रागद्वेष परिणाम भी आत्माके तदात्मक उत्पन्न हो जावें, किन्तु सुवर्ण द्रव्य तो वास्तविक स्वरूपसे धन और प्रयोजनरूप नहीं हो जाता है। सुवर्ण तो सुवर्ण है, रसवान् है, गन्धवान् है, पौद्गलिक है, यदि सुवर्णका धनपना वस्तुभूत अंग होता तो वीतराग भी उसको धन समझ लेते । अन्यथा उनके मिथ्याज्ञान होनेका प्रसंग आता । ग्रन्थकार कहते हैं कि यदि इस प्रकार कहोगे तो आपका कहना बहुत ठीक है । सुवर्णको केवल सुवर्णके ही वस्तुपनेसे विचारा जावे तो स्वाभाविक परिणामकी अपेक्षासे उस सुवर्णके धनपने और प्रयोजनपनेको वस्तुरूपताकी व्यवस्था होना असम्भव है। हां ! दूसरे निमित्तोंसे किये गये परिणामोंकी अपेक्षासे तो उस सुवर्णके प्रयोजनपने और धनपनेकी वास्तविकताका निषेध नहीं है । दूसरे निमित्तोंसे जल उप्ण हो जाता है, वह उष्णता जलका अर्थ है । जलके स्पर्शगुणका परिणाम है । अतः जलकी गृहीय गांठकी सम्पत्ति है । ऐसे ही दूसरे निमित्तोंसे होनेवाले भाव भी तद्रूप हैं। शरीरभेद हो जानेसे ही स्त्रीकी आत्मा भिन्न है और पुरुषकी आत्मा भिन्न है । स्त्रीको मोक्षका अधिकार नहीं, पुरुषको है । इस रीतिसे एक ही आत्माकी पहिले पीछेकी स्त्री, पुरुष, पर्यायोंमें महान् अन्तर है । दरिद्रके भाव धनवान्से निराले हैं।