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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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आदि स्वभाव हैं, वैसे धनपना उसका स्वभाव नहीं है । कतिपय धनाढ्य सुवर्णके विद्यमान होनेसे ही डांकुओंके द्वारा मार दिये जाते हैं, जिसके कि वे चोरोंको पहिचानकर दण्ड न दिला सके । यदि वे निर्धन होते तो वनमें भी उनको किसी प्रकारका भय न था । अनेक निरपेक्षजीव सुवर्णको अपना प्रयोजन [ स्वार्थ ] भी नहीं समझते हैं। जहां भूमिमें लक्षोंका धन गढा हुआ है वहां चूहे, चींटे, यही डोलते रहते हैं । उन्हें तो अन्न या खांड चाहिये, रुपया म्होरोंकी आकांक्षा नहीं है । फिर आप जैन बलात्कार से अर्थ शब्दका वाच्य अर्थ धन और प्रयोजन कहकर अतिव्याप्तिका वारण करनेके लिए अर्थका तत्त्व विशेषण क्यों लगाते हैं ? सूत्रका व्यर्थ बोझ बढानेसे क्या लाभ है ? भावार्थ:- :- धन और प्रयोजनको वास्तविक अर्थपना नहीं है । अतः तत्त्वपदके बिना केवल अर्थ - . पदसे ही अतिव्याप्तिका वारण हो जावेगा । इस प्रकार कोई पंडित कह रहे हैं । अब आचार्य महाराज इसका उत्तर देते हैं कि
तेषां क्रोधादयोप्यात्मनः पारमार्थिका न स्युर्मोहोदयनिबन्धनत्वाद्धन प्रयोजनयोरर्थाभिप्रायवत् तेषामौदयिकत्वेन वास्तवत्वमिति चेत्, अन्यत्र समानम् ।
उनके यहां क्रोध, अभिमान, लोभ आदि भी आत्माके वस्तुभूत स्वभाव नहीं हो सकेंगे । क्योंकि मोहके उदयको कारण मानकर क्रोध आदिक उत्पन्न होते हैं । जैसे कि धन और प्रयोजन में अर्थ समझनेका अभिप्राय करना मोहके उदयसे जन्य होने के कारण वस्तुधर्म नहीं है, ऐसा होने पर क्रोधको आत्माका भाव समझनेवाला पुरुष सम्यग्दृष्टि न बन सकेगा। किंतु क्रोध आदि तो नौवें गुणस्थान तक पाये जाते हैं, अतः चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे होनेवाले भाव भी आत्माके स्वतच्य रूप पारमार्थिक भाव हैं । शुद्ध आत्मद्रव्यके क्रोध आदिक भाव नहीं हैं । एतावता सांसारिक अशुद्ध आत्मद्रव्यके भी क्रोध आदिक वस्तुभूत परिणाम नहीं हैं, यह नहीं कह बैठना चाहिये । केवल समयसारजीका अपेक्षा लगाये विना स्वाध्याय करनेसे निश्चयकी ओर ( तरफ ) झुक जानेवाले पुरुको प्रमाणके विषयभूत वस्तुके परनिमित्त से होनेवाले वास्तविक परिणामोंको नहीं भूल जाना चाहिये। तभी तो जैनसिद्धान्तमें औपशमिक आदि पांचों भाव आत्माके स्वकीय तत्त्व माने गये हैं । यदि कोई यों कहें कि क्रोध आदिक तो कर्मोंका उदय होनेपर उत्पन्न हो जानेवाले आत्माके भाव हैं क्रोध, मान, रति आदि भावोंके निमित्तकारण कर्म हैं और आत्मा उनका उपादानकारण है। अतः वस्तुभूत हैं, यों उनका जानना तो पारमार्थिक अर्थोंका जानना ही है । ऐसा कहने पर तो हम जैन भी कहते हैं कि ऐसा वास्तविकपना तो दूसरे स्थानोंमें भी समानरूपसे लागू हो जाता है अर्थात् सुवर्ण मेरा धन है, सुवर्ण प्राप्त करना मेरा प्रयोजन है । ऐसे प्रत्यय होना भी चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे जन्य भाव हैं । अतः ये भी आत्मा के वस्तुभूत परिणाम हैं । शुद्धजीवद्रव्यका क्रोध परिणाम नहीं है। यह एकदेशीय निश्चय नयका विषय है । किंतु वस्तु तो द्रव्य और पर्यायोंका समुदाय है। वह प्रमाणका ही विषय है । कर्म और नोकर्मसे बन्धको प्राप्त हुए जीवकी क्रोध कर्मके उदय होनेपर
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