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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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बौद्धोंके यहां गो शद्बका वाच्यअर्थ अगोनिवृत्ति माना गया है । यहां विचार यों करना है कि अगोनिवृत्तिमें पहिले निषेध करने योग्य अगो पड़ा हुआ है । जो गौ नहीं है वह अगो है। इस प्रकार सबसे पहिले एक गोनिवृत्ति आयी । तिसके अनन्तर अगोकी निवृत्ति की । यह तो दूसरी निवृत्ति हुई। इस दूसरी निवृत्तिको भी निषेधमुखसे कहेगा तो उसके पीछे एक उससे न्यारी तीसरी निवृत्ति खडी हो जावेगी। तिसके अनन्तर अपोहरूप चौथी निवृत्ति निराली हो जावेगी । इस प्रकार गोशब्द करके यह चौथी निवृत्ति कही जावेगी । तब तो उस निवृत्तिके मुख्यपनेसे शद्वगतिकी प्रवृत्ति होगी। किन्तु तब वह भी विधिको प्रधान रखनेवाले गोशद करके नहीं कही जावेगी । अपोह मुखसे ही उसका निरूपण होगा। यदि चौथी निवृत्ति विधिप्रधानता से कह दी जाती तो दूसरी निवृत्तिको भी तिसी प्रकार कहे जानेपनका प्रसंग हो जावेगा । भावार्थ-अनवस्थाके परिहारके लिए चौथी निवृत्तिको विधिप्रधान रखा जाता है तो दूसरी निवृत्ति को ही क्यों न रख लिया जावे । मूल गौके विधिरूप रखनेसै तो सर्वतोभद्र हो जावें । और दूसरी बात यह है कि बौद्ध लोग चौथी, छठी, आठवी निवृत्ति होनेको विधिकी प्रधानतासे भला मानते कहां हैं ?
___ गौरिव विधिसिद्धिः स्वान्यनिवृत्तिद्वारेणाभिधीयत इति चेत्, तर्हि तंतोऽन्या पञ्चमी निवृत्तिस्ततो निवृत्तिः षष्ठी सा गोशद्धस्यार्थ इत्यनवस्था सुदूरमप्यनुसृत्य तद्विधिद्वारेणाश्रयणात् निवृत्तिपरम्परायामेव शद्धस्य व्यापारात् ।
___सौगत कहते हैं कि गौके समान विधानकी सिद्धिका भी अपनेसे अन्योंकी निवृत्तिके द्वारा ही कथन किया जाता है, अर्थात् सबसे प्रथम गौकी विधिसिद्धिकी जैसे चार कोटी चली हैं, तैसे ही चौथी निवृत्तिकी विधिसिद्धि भी अन्यापोह द्वारा कही जावेगी । अब आचार्य कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे, तब तो उस चौथी निवृत्तिका भी अन्य निवृत्ति द्वारा कथन करनेसे अन्य पदसे पांचवीं निवृत्ति कथित हुयी और उससे अपोहरूप छठी निवृत्ति हुयी और वह गो शब्दका वाच्य अर्थ हुयी। इस प्रकार छठी निवृत्ति भी अन्यनिवृत्तिके द्वारा अन्यापोहको ही कहेगी यह अनवस्था दोष है। बहुत दूरतक भी पीछे पीछे जाकर आपको कहीं न कहीं अन्यनिवृत्ति द्वाराका अवलम्ब छोडकर विधिद्वाराका अवलम्ब लेना पडेगा । अन्यथा वैसा माननेसे तो गंगाकी अटूट धारके समान निवृत्तियोंकी परम्परामें ही शब्दका व्यापार बना रहेगा । अतः प्रथमसे ही विधि द्वार करके शब्दके वाच्य अर्थकी व्यवस्था करना ठीक है । वस्तुतः देखा जावे तो तुच्छ अन्यापोह कोई वस्तुभूत पदार्थ नहीं है, बौद्धोंने भी नहीं माना है । बौद्ध जन "बुद्धो भवेयं जगते हिताय' मैं जगत्के प्राणियोंका हित करनेके लिये बुद्ध हो जाऊं, ऐसी बुद्धपनेको बनानेवाली विशिष्ट भावनासे बुद्ध होना मानते हैं तथा "तिष्ठन्त्येव पराधीना येषां च महती कृपा " मोक्ष होनेके सम्पूर्ण कारण मिल जानेपर भी संसारी जीवोंको तत्त्वज्ञानका उपदेश देनेके लिये दयालुता वश वे बुद्ध कुछ दिनतक संसारमें टिके रहते