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तत्त्वार्थ लोकवार्तिके
यदि गौरित्ययं शद्बो विधत्तेन्यनिवर्तनम् ।
विदधीत तदा गोत्वं तन्नान्यापोहगोचरः ॥ ४२ ॥ यह गो ऐसा शब्द यदि अन्यकी निवृत्ति करनेका विधान करता है, तब तो गौपनेका ही विधान करे । सर्वथा अभावको कहनेवाला शब्द यदि विधान सीख गया है तो अच्छा ही हुआ । भले ही वह अभावका ही विधान करे । जिस रोगीका बोलना रुक गया है यदि वह रोवे सो ही अच्छा है । तैसे ही वह गौपनेका विधान भी कर सकेगा । अतः वह गो शब्द एकान्तरूपसे अन्यों के अपोहको ही विषय करनेवाला न हुआ । विधायक भी हो गया ।
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स्वलक्षणमन्यस्मादपोह्यतेनेनेत्यन्यापोहो विकल्पस्तं यदि गोशही विधत्ते तदा गामेव किं न विदध्यात्, तथा च नान्यापोहं शब्दार्थः गोशब्देनागोनिवृत्तेः कल्पनात्मिकायाः स्वयं विधानात् ।
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बौद्ध लोग स्वलक्षणको वास्तविक तत्त्व मानते हैं, अन्यापोह शद्वकी निरुक्ति यह है कि अन्य पदार्थों स्वलक्षण पृथक् किया जावे जिस करके वह विकल्परूप धर्म अन्यापोह है । यदि गो शब्द उस विकल्पका विधान करता है तब तो साक्षात् गोव्यक्तिका ही क्यों न विधान करें ? बौद्धोंके मतानुसार बिकल्प या विकल्प्य और गोव्यक्ति प्रायः एकसी पडती हैं । विकल्प भी कल्पना किया गया भाव है । और गोव्यक्ति भी स्थूल अवयवपिनेसे कल्पित किया गया भाव है । गोशद्वको सुनकर भावरूप पदार्थकी प्रतीति होती है । तिस प्रकारसे तो सिद्ध हो जाता है कि बौद्धोंसे तो माना गया अन्यापोहराद्वका वाच्यअर्थ नहीं है। क्योंकि गोशद्व करके कल्पनास्वरूप अगो निवृत्तिका स्वयं विधान होना बौद्धोंने मान लिया है । जब गो शब्द अर्थका विधान करने भी लग गया तब बौद्धोंसे आग्रह किये गये अपोहरूप एकान्तको कहनेकी प्रतिज्ञा रक्षित नहीं रह सकी । अगोनिवृत्तिमप्यन्यनिवृत्तिमुखतो यदि
गोशद्वः कथयेन्नूनमनवस्था प्रसज्यते ॥ ४३ ॥
यदि आप बौद्ध यों कहें कि गो शब्द अगो निवृत्तिको भी विधि भावसे नहीं करता है, किन्तु अन्य निवृत्तिको मुख्य करता हुआ अगोनिवृत्तिको कहेगा, तब तो निश्चय करके बौद्धोंके ऊपर अनवस्था दोषका प्रसंग है । अगोनिवृत्तिको अनगोनिवृत्ति - अभावरूप मुखसे कहेगा और • इसको भी इसके ऊपर दो अभावोंको लादें हुए मुखसे कहेगा । फिर उसको भी छह अभावोंका - बोझ झेलनेवाले अभिमुखपने से कहेगा, यों अनवस्था हो जावेगी । कहीं ठहरना नहीं होगा ।
न गौरगौरिति गोनिवृत्तिस्तावदेका ततो द्वितीया त्वगोनिवृत्तिस्ततोन्या तन्निवृतिस्तृतीया ततोऽन्यनिवृत्तिश्चतुर्थी यदि गोशब्देन कथ्यते तन्मुखेन गतिप्रवर्तनात् तदा सापि न गोशब्देन विधिशाचान्येनाभिषेषा द्वितीयनिवृत्तेरपि तथाभिधेयत्वप्रसंगात् ।