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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः २३३ गोत्वके आधार माने गये अवयवोंमें गौका ज्ञान करा देवेगा तथा उसके भी संयोगी आधारभूत पिण्डरूप दूसरे गो व्यक्तिमें तो गौका ज्ञान शीघ्र ही कर देता है, अर्थात् गो शब्द आकृतिको साक्षात् कहता है और परम्परासे अवयव, गौ, तथा अनेक गौओंको भी कह देता है । ___ कस्मात् पुनर्गुणे द्रव्ये द्रव्यान्तरे च प्रत्ययं कुर्वनाकृतेरभिधायकः शद्ध इति न चौद्यं, लोहितशद्धो ह्यर्थान्तरनिरपेक्षो गुणसामान्ये स्वरूपं प्रतिलब्धस्वरूपः तदधिष्ठानो यदा न गुणस्य लोहितस्य नाप्यलोहितत्वेन व्यावशात्प्रत्यायनं करोति तदा विभागाभावादाकृत्यधिष्ठान एव । स तु गुणे प्रत्ययमादधतीत्याकृतिमभिधत्ते । यथोपाश्रयविशेषात् स्फटिकमणिं तद्गुणमुपलभ्यमानमध्यक्षं स्फटिकमणेरेव प्रकाशकं तदधिष्ठानस्य परोपहितगुणव्यावशादविभागेन तद्गुणत्वप्रत्ययजननात् । एवं द्रव्यमभिदधानो लोहितशद्धः स्वाभिधेयलोहितत्वाकृतेर्लोहितगुणे समवेतायास्तस्य च द्रव्ये समवेतत्वादाकृत्यधिष्ठान एव तत्समवेतसमवायाद्गुणव्यवहितेऽपि द्रव्ये लोहितप्रत्ययमुपपादयेत् । कोई यहां आकृतीवादीके ऊपर कुतर्क करते हैं कि जब गुण, द्रव्य, और दूसरे द्रव्योंमें शद्ध स्वजन्य ज्ञानको कर रहा है, तो फिर आकृतिको ही कहनेवाला शब्द क्यों माना जाता है ? गुण आदिकको भी कहनेवाला कहना चाहिए। आकृतिवादी कहते हैं कि इस प्रकारका तर्क उठाना ठीक नहीं है, क्योंकि रक्त शब्द अन्य अर्थोकी नहीं अपेक्षा रखकर सामान्यरूपसे रक्त ( लाल ) गुणमें अपने स्वरूपका बढिया लक्षण लाभ करता हुआ उस गुणसामान्यका अवलम्ब लेकर निश्चय करके प्रतिष्ठित हो रहा है। वह लोहित शब्द जब अलोहितपनेके भी आवेशसे निषिद्ध होकर लोहित गुणका निर्णय नहीं कराता है । तब विभाग न होनेसे आकृतिके आधारमें ही प्रवृत्त हो रहा है । वह शब्द तो रक्त गुणमें ज्ञानको करता हुआ यों लोहित आकृतिको कह देता है । जैसे कि जपापुष्परूप विशेष उपाधिसे युक्त हो रहे स्फटिकमणिको जाननेवाला प्रत्यक्षप्रमाण उस पुष्पके गुण रक्तपनेको जानता हुआ प्रत्यक्ष स्फटिक मणिका ही प्रकाशक है, क्योंकि उस गुणके आक्रमणका अन्य उपाधि युक्त गुणके आवेशसे विभाग करके गुणपनेका ज्ञान पैदा हो जाता है । भावार्थ-जपाकुसुमकी रक्तिमा स्फटिकमें जान ली जाती है । इसी प्रकार लोहित शब्द भी परम्परासे द्रव्यको संकेत कर रहा है। सुनिये ! लोहित शद्बका साक्षात् अपना वाच्य अर्थ लोहितपनारूप आकृति है, आकृतिका लोहित गुणमें समवाय सम्बन्धसे वर्तना हो रहा है और उस लोहित गुणका द्रव्यमें समवाय सम्बन्ध हो रहा है । जो समवाय सम्बन्धसे वर्तना है वह समवेत कहा जाता है । अतः परम्परासे गुणका व्यवधान हुए द्रव्यमें भी लोहित शद्ब लोहितज्ञानको उत्पन्न करा देवेगा । आकृतिका समवेतसमवाय नामक परम्परा सम्बन्धसे वह द्रव्य आधार है। ____ एवमन्यत्र द्रव्ये लोहितद्रव्यस्य संयुक्तत्वात् तत्र च लोहितगुणस्य समवेतत्वात् तत्र च लोहिताकृतेः समवायात् संयुक्तसमवेतसमवायान्तरमुपजनयेत् । 30
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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