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तत्त्वार्थलोकवार्तिके
केचिदत्राकृतिपदार्थवादिनः पाहुः ।
कोई आकृति यानी पदार्थके आकारको ही पद का वाच्य अर्थ मानने वाले वादी यहां आठ वार्तिकों करके अपने मन्तव्यको स्पष्ट कहते हैं।
लोहिताकृतिमाचष्टे यथोक्तो लोहितध्वनिः। लोहिताकृत्यधिष्ठाने विभागालोहिते गुणे ॥ ३२ ॥ तदावेशात्तथा तत्र प्रत्ययस्य समुद्भवात् । द्रव्ये च समवायेन प्रसूयेत तदाश्रये ॥ ३३ ॥ . गुणे समाश्रितत्वेन समवायात्तदाकृतेः। संयुक्तसमवेते च द्रव्येन्यत्रोपपादयेत् ॥ ३४ ॥ लोहितप्रत्ययं रक्तवस्त्रद्वयवृतेऽपि च । तथा गौरिति शद्वोऽपि कथयत्याकृति स्वतः ॥ ३५ ॥ गोत्वरूपात्तदावेशात्तदधिष्ठान एव तु। तदाश्रये च गोपिण्डे गोबुद्धिं कुरुतेऽञ्जसा ॥ ३६ ॥
अवयवोंकी रचना विशेषको आकृति कहते हैं, यानी गौके सींग, सास्ना आदिक अवयवोंका संस्थानविशेषरूप आकृति कही जाती है । गोत्व जातिका ज्ञापक लिंग संस्थानविशेषरूप आकृति है। वह रचनाविशेष परम्परासे द्रव्यमें रहती है । वार्तिकका अर्थ यों है कि जैसे वक्ताके द्वारा कहा गया लोहित ( रक्त ) यह शब्द रक्तके संस्थानविशेष आकृतिको कह देता है । गुण और आकृतिका विभाग करनेसे लोहित आकृतिके आधारभूत उस लोहित गुणमें भी उस आकृतिके आवेशसे तिस प्रकारका ज्ञान अच्छा उत्पन्न हो जाता है तथा समवायसम्बन्धसे उस गुणके आधारभूत द्रव्यमें भी लोहितज्ञान उत्पन्न हो जाता है । यहांतक कि रक दो वस्त्रोंसे घिरे हुए शुक्ल वस्त्रमें भी रक्तज्ञान उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि समवाय सम्बन्धसे वह आकृति गुणमें ठीक आश्रित होरही है। तथा संयुक्तसमवाय संबन्धसे दूसरे द्रव्योंमें रहती हुयी वह आकृति वहां भी रक्तज्ञानको युक्तिद्वारा पैदा करा देवेगी । भावार्थ-रक्त शब्द रक्तकी रचना विशेषको कहता है। वह रचना गुणमें है । गुण द्रव्यमें है। द्रव्य दूसरे द्रव्यसे संयुक्त हो रहा है। इस परम्परासे लोहित शब्द गुण, द्रव्य और द्रव्यान्तरोंका भी जैसे प्रतिपादन कर देता है जिसको कि आप जैनोंने गुणवाचक शब्द माना है, तैसे ही आपके द्वारा जातिशब्द माना गया गो यह शब्द भी अपने आप सींग, सास्ना, पुच्छ, कुकुद् आदि अवयवोंकी रचना विशेषरूप आकृतिको कह रहा है और उस गोत्वरूप आकृतिके आवेशसे ही उस