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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः २२५ यदि ब्रह्मवादी यों कहें कि उस परब्रह्मकी विधि ही अन्यका निषेध है जैसे केवल रीता भूतल ही घट, पट आदिकोंका निषेधरूप है, निषेध कोई स्वतन्त्र धर्म या पदार्थ नहीं है, अर्थात् एक पहिलेसे ही नीरोग उत्पन्न हुए बालकका समीचीन स्वास्थ्य ही नीरोगता है, ऐसा नहीं है कि बालकके अनेक रोगोंका प्रकरण प्राप्त हो जावे पुनः उनका औषधियोंके द्वारा अभाव किया जावे । अतः अद्वैत परब्रह्मकी विधि ही तुच्छ अनेक पदार्थोका निषेधरूप है, आलोकका अभाव ही अन्धकार है, अब आचार्य कहते हैं कि तुम ब्रह्मवादी यदि ऐसा कहोगे तो हम कहेंगे कि उससे अन्य पदार्थोका निषेध ही उस ब्रह्मकी विधि हो जाओ ! भावार्थ-जिस वृद्ध मनुष्यने अनेक रोगोंके हो जानेपर चिकित्सा द्वारा उनका निराकरण करके जो स्वास्थ्यलाभ किया है वह स्वास्थ्य रोगोंका अभावरूप ही तो है, आठों कर्मोका अभाव ही तो मोक्ष अवस्था है, अन्धकारका अभाव ही तो आलोक है । भोग उपभोगोंका न भोगना ही वैराग्य है । और तिस कारण यों तो अन्यापोह ही पदका वाच्य अर्थ बन बैठेगा। ___ स्वरूपस्य विधेस्तदपोह इति नाममात्रभेदादर्थो न भिद्यते एव यतोऽनिष्टसिद्धिः स्यादिति चेत् । न । अन्यापोहस्यान्यार्थापेक्षत्वात् स्वरूपविधेः परानपेक्षत्वादर्थभेदगतेः। यदि ब्रह्माद्वैतवादी यों कहें कि ब्रह्मके स्वरूपकी विधिका ही नाम उन अन्य पदार्थोंका अपोह ऐसा धर दिया गया है केवल नामका भेद हो जानेसे यहां अर्थका भेद कैसे भी नहीं है जिससे कि द्वैत या निषेधरूप अनिष्ट पदार्थोकी सिद्धि हो जावे । अब आचार्य कहते हैं कि वे इस प्रकार तो नहीं कह सकते हैं, क्योंकि अपोह और स्वरूपकी विधि इनमें अन्तर है ब्रह्मसे अतिरिक्त पदार्थोका अन्यापोह करना यह अन्य अर्थोकी अपेक्षा रखता है, किन्तु ब्रह्मके स्वरूपकी विधि तो अन्य पदार्थोकी अपेक्षा नहीं रखती है। अतः यहां विधि और निषेधमें भिन्न भिन्न अर्थ जाना जा रहा है। परमात्मन्यद्वये सति ततोन्यस्यार्थस्याभावात् कथं तदपेक्षयान्यापोह इति चेत् न । परपरिकल्पितस्यावश्याभ्युगमनीयत्वात् । सोऽप्यविद्यात्मक एवेति चेत्, किमविद्यातोऽपोहस्तदपेक्षो नेष्टः ? सोऽप्यविद्यात्मक एवेति चेत् तर्हि तत्त्वतो नाविद्यातोऽपोहः परमात्मन इति कुतो विद्यात्वं येन स एव पदस्यार्थी नित्यः प्रतिष्ठेत । पुरुषाद्वैतवादी कहते हैं कि परब्रह्म तत्त्वके सर्वथा एक होनेपर जब उससे अभिन्न कोई दूसरा पदार्थ ही जगत्में नहीं है तो उस अन्य अर्थकी अपेक्षासे यह अन्यापोह कैसे कहा जा सकता है ? इसपर आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना चाहिये, क्योंकि दूसरे वादियोंके माने हुए पदार्थोको अवश्य स्वीकार करना चाहिये चाहे कल्पनासे ही मानो ! उनका निषेध भी तो करना है । यदि अद्वैतवादी यों कहें कि वे सब कल्पना किये हुए पदार्थ भी अविद्या स्वरूप ही हैं, वास्तविक नहीं हैं। इसपर हम कहते हैं कि ऐसा ही सही, किन्तु यह तो बतलाओ कि क्या अविद्यासे अपोह ( व्यावृत्ति ) करना उस अन्य पदार्थकी अपेक्षा रखता हुआ आपने इष्ट नहीं किया 29
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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