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तत्त्वार्थ लोकवार्तिके
अतः रूपका प्रतिभास और रूप एक ही है । वह रूप आदिकोंका प्रतिभास भी सामान्य प्रतिभासके. विकल्प ( विवर्त ) स्वरूप लिंगसे अभिन्न है और वह हेतु भी सामान्य संवेदनस्वरूप परमात्मासे अभिन्न है । इस प्रकार शद्वसे रूप आदिकोंके कुछ भी विशेष ( अन्तर ) को हम नहीं देख रहे हैं। सभी प्रकार से उस अन्तरको नहीं देखते हुए हम इस बातको कैसे समझ लेवें कि शब्द ही अपने स्वरूप मात्र ब्रह्मका प्रकाश करनेवाला है । किन्तु रूप आदिक तत्त्व तो अपने स्वरूप के प्रकाश करनेवाले नहीं हैं, अथवा वह शद्व ही ब्रह्मका स्वभाव होता हुआ परब्रह्मके जाननेका उपाय है । किन्तु फिर वे रूप आदिक तत्त्व तो ब्रह्मको जाननेके उपाय नहीं हैं, अथवा शद्व ही उस ब्रह्मका स्वभाव है, ब्रह्मके स्वभाव रूप आदिक गुण नहीं हैं । भावार्थ - शद्व और रूप आदिकमें कोई विशेषता नहीं है, यदि शद्वाद्वैत माना जावेगा तो रूपाद्वैत रसाद्वैत भी मान लिये जावेंगे। कोई भी नहीं रोक सकेगा । अत्रापरः प्राह । पुरुषाद्वैतमेवास्तु पदार्थः प्रधानशद्धब्रह्मादेस्तत्स्वभावत्वात्तस्यैव विधि - रूपस्य नित्यद्रव्यत्वादिति । तदप्यसारम् । तदन्यापोहस्य पदार्थत्वसिद्धेः । शो हि ब्रह्म ब्रुवाणः स्वप्रतिपक्षादपोढं ब्रूयात् किं वान्यथा । प्रथमपक्षे विधिप्रतिषेधात्मनो वस्तुनः पदार्थत्वसिद्धिः । द्वितीयपक्षेऽपि सैव, स्वप्रतिपक्षादव्यावृत्तस्य परमात्मनः शब्देनाभिधानात् ।
यहां कोई दूसरा विशिष्टाद्वैतवादी कहता है कि वर्णसमुदाय स्वरूप पदका अर्थ माना गया ब्रह्माद्वैत ही वास्तविक पदार्थ होओ ! प्रधान, शद, ब्रह्म, संवेदन, चित्, सत्, आनन्द आदिक उसी एक पुरुष के स्वभाव ( पर्याय ) हैं, वह पुरुषाद्वैत ही नित्य द्रव्य होने के कारण विधिरूप होता हुआ पदका वाच्य अर्थ हो जाता है। आचार्य समझाते हैं कि इस प्रकार इसका वह कहना भी सार रहित है, क्योंकि यों तो बौद्धोंके माने हुए उस अन्यापोह को भी पदका वाच्य अर्थपना सिद्ध हो जावेगा । आप अद्वैतवादी उत्तर दो कि आपसे माना गया शब्द जिस समय ब्रह्मको कह रहा है वह अपने (ब्रह्म) प्रतिपक्ष ( विरुद्ध ) पदार्थोंसे रहित ही केवल ब्रह्मको कहेगा, अथवा क्या अन्यथा यानी ब्रह्मसे विरुद्ध पदार्थका निषेध नहीं करते हुए उस ब्रह्मको कहेगा ? पहिला पक्ष लेने पर तो विधि और प्रतिषेधस्वरूप वस्तुको पदका वाच्य अर्थपना सिद्ध होता है । क्योंकि शद्वने ब्रह्मसे अतिरिक्त पदार्थोंका निषेध किया और ब्रह्मका विधान किया है । दूसरा पक्ष लेनेपर भी वही बात सिद्ध हुयी, यानी विधिप्रतिषेधरूप वस्तुको ही पदका अर्थपना सिद्ध हो गया। क्योंकि अपने प्रतिपक्षसे नहीं पृथग्भूत हुए परमात्माका शद्वके द्वारा निरूपण किया गया है । भावार्थ-सत् रूप परब्रह्मका विधान हुआ और उसके प्रतिपक्षका भी कथन हुआ। दूसरे ढंग से यह भी विधि और निषेधका निरूपण है । अस्ति और उसके प्रतिपक्ष नास्तिका भी शद्वसे कथन करना विधि, निषेध स्वरूप वस्तुको पदका अर्थपना सिद्ध करता है ।
तद्विधिरेवान्यनिषेध इति चेत्, तदन्यप्रतिषेध एव तद्विधिरस्तु । तथा चान्यापोह एव पदार्थः स्यात् ।