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तत्त्वार्थश्लोकबार्तिके
है ? इसपर यदि तुम यों कहो कि ब्रह्मसे अविद्याका वह अपोह करना भी अविद्या स्वरूप ही है। ऐसा कहने पर तो प्रतीत हुआ कि तब तो वास्तविकरूप करके परब्रह्मका अविद्यासे पृथक्पना नहीं बना । इस प्रकार ब्रह्माको विद्यापन ( सम्यग्ज्ञानपन ) कैसे आवेगा ? भावार्थ-अविद्यासे रहितपना यदि अविद्या ही है तो वस्तुतः अविद्यासे रहितपना नहीं आया । तब तो ब्रह्म अविद्या स्वरूप ही ठहरेगा । ब्रह्मको विद्यापना सिद्ध न होगा, जिससे कि वह नित्य ब्रह्म ही पदका वाच्य अर्थ प्रतिष्ठित हो सके । अथवा शद्बका वाच्य व्यक्तियोंको छोडकर नित्य पदार्थ बन सके। - सत्यपि च परमात्मनि संवेदनात्मन्यद्वये कथं शद्धविषयत्वम् ? स्वसंवेदनादेव तस्य प्रसिद्धस्तत्प्रतिपत्तये शद्ववैयर्थ्यात् । ततो मिथ्यावाद एवायं नित्यं द्रव्यं पदार्थ इति । . . और थोडी देरके लिये आप अद्वैतवादियोंके कहनेसे परब्रह्म या संवेदन स्वरूप अद्वैतको मान लिया भी जावे तो भी आप यह बतलाइये कि वह चैतन्यरूप परब्रह्म भला शद्वजन्य ज्ञानका गोचर कैसे होगा ? क्योंकि आपके मतानुसार उस परब्रह्मकी स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे ही प्रसिद्धि हो रही मानी गयी है। उसकी प्रमितिके लिये शब्द्वका प्रयोग करना व्यर्थ है । प्रत्यक्ष करने योग्य चेतनात्मक पदार्थीका शबसे वैसा विशदज्ञान नहीं होता है । और ऐसा माननेसे अद्वैतवादियोंके ऊपर कतिपय दोषोंके प्रसंग आवेंगे। अद्वैतवादी और बौद्धोंके यहां प्रत्यक्ष ज्ञानका विषयभूत अर्थ शरोंसे छुआ नहीं जाता माना गया है । तिस कारण पदका वाच्य अर्थ नित्यद्रव्य है। इस प्रकार अद्वैतवादियोंका यह कहना झूठी बकवाद ही है । वस्तुतः विधिनिषेधात्मक वस्तु या सामान्यविशेषात्मक पदार्थ ही शद्बका वाच्य अर्थ है।
व्यक्तावेकत्र शद्वेन निर्णीतायां कथञ्चन । तद्विशेषणभूताया जातेः संप्रत्ययः स्वतः ॥२५॥ गुडशब्दाद्यथा ज्ञाने गुडे माधुर्यनिर्णयः । खतः प्रतीयते लोके प्रोक्तो निम्बे च तिक्तता ॥ २६ ॥ प्रतीतया पुनर्जात्या विशिष्ट व्यक्तिमीहिताम् । यां यां पश्यति तत्रार्य प्रवर्तेतार्थसिद्धये ॥ २७ ॥
तथा च सकलः शाब्दव्यवहारः प्रसिध्द्यति । .. प्रतीतेर्बाधशून्यत्वादित्येके संप्रचक्षते ॥ २८ ॥
— शब्दके द्वारा किसी भी प्रकार एक व्यक्तिके निर्णीत हो जानेपर उस व्यक्तिके विशेषणभूत हो रही जातिका अपने आप अच्छे प्रकार ज्ञान हो जाता है, जैसे कि गुड शबसे गुडका ज्ञान कर