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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके है। अतः असम्बन्ध होनेके कारण समवायत्व जाति नहीं मानी है। किन्तु नित्यसम्बन्धपना रूप सखण्डोपाधि है । इस प्रकार ये छह धर्म जातिके बाधक माने गये हैं । एक व्यक्तिमें रहनेके कारण जातिमें पुनः दूसरी जाति नहीं मानी गयी है, यों जाति शद्ब फिर जातिको विषय करनेवाला कैसे हो सकेगा ? क्योंकि विवक्षित जातिमें पुनः अन्य जातियोंका वर्तना माना नहीं गया है, अन्यथा घटत्वमें घटत्वत्व और घटत्वत्वमें घटत्वत्वत्व आदि जातियोंके मानते जानेसे अनवस्था दोषका प्रसंग होगा । ऐसी दशामें जाति शद्बको आप जातिवाचक कैसे कह सकेंगे ? बताओ। भावार्थ-गोत्व शब्द यदि गोत्वत्व जातिको कहता होता तब तो सभी शवोंका अर्थ जाति ही माना जा सकता था, किन्तु गोत्वमें गोत्वत्व जाति ही नहीं रहती है। इस कारण आपके नियममें अव्याप्ति दोष हुआ, ऐसा कहनेपर अब जातिवादी मीमांसक उत्तर देता है कि यह उक्त प्रकार चोद्य तो नहीं करना चाहिये, क्योंकि जातियोंमें भी दूसरी अनेक जातियां स्वीकार की हैं। जातियां अनन्त हैं परिमित नहीं । मूलको क्षय करनेवाली अनवस्था दूषण मानी गयी है किन्तु भूलको पुष्ट करनेवाली अनवस्था तो भूषण है । जिस पुरुषकी जितनी दो, चार, बीस, सौ, पांच सौ कोटि चलकर आकांक्षाका क्षय होते हुए तदनुसार व्यवहारकी परिसमाप्ति हो जाती है उससे आगे अनवस्थाका होना सम्भव नहीं है। किसी भी पुरुषका किसी भी अन्य पुरुषके लिये पिता, पितामह (बाबा) प्रपितामह ( पडबावा ) आदिका प्रश्न करनेपर कुछ कोटिके पीछे आकांक्षा स्वतः शान्त हो ही जाती है, यदि आकांक्षा शान्त न होवे तो अनवस्था होने दो ! कोई क्षति नहीं। कार्यकारणभावका भंग नहीं होना चाहिये। ऐसे ही जातियोंमें भी समझ लेना । ज्ञापकपक्षमें कुछ दूर चल कर आकांक्षाओंका क्षय हो जानेसे अनवस्था वहीं टूट जाती है। ___कालो दिगाकाशमिति शद्धाः कथं जातिविषयाः कालादिषु जातेरसम्भवाचेषामेकद्रव्यत्वादित्यपि न शंकनीयं, कालशद्धस्य त्रुटिलवादिकालभेदेष्वनुस्यूतमत्ययावच्छेचे कालत्वसामान्ये प्रवर्तनात् । पूर्वापरादिदिग्भेदेष्वन्वयज्ञानगम्ये दिक्त्वसामान्ये दिक्छदस्य प्रवृत्तेः । पाटलिपुत्रचित्रकूटाद्याकाशभेदेष्वनुस्यूतप्रतीतिगोचरे चाकाशसामान्ये प्रवर्तमानस्याकाशशदस्य संप्रत्ययाज्जातिशद्धत्वोपपत्तेः कालादीनामुपचरिता एव भेदा न परमार्थसन्त इति दर्शने तज्जात्तिरप्युपचरिता तेष्वस्तु । तथा च उपचरित जातिशद्धाः कालादय इति न व्यक्तिशद्धाः ।। ___ यदि कोई यों कहे कि एक द्रव्य होनेके कारण काल, आदिकोंमें वर्तरही मानी गयीं कालत्व आदि जातियोंका असम्भव है तो फिर काल, दिक् और आकाश ये शब्द कैसें जातिको विषय करनेवाले जाति शब्द कहे जा सकेंगे ? मीमांसक समझाते हैं कि इस प्रकारकी शंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि कालशर भी कालत्व जातिमें भली रीतिसे वर्तता है। काल द्रव्य एक नहीं है किन्तु पल, विपल, त्रुटि, लय, श्वास, घडी, मुहूर्त, दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन आदि कालभेदोंमें अन्वय
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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