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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
वृद्धपनेकी अवस्थाओं में व्यवहार किया गया प्रतीत हो रहा है, यही है, न कि वैशेषिक मत अनुसार जाति अनेकोंमें रहनी चाहिये सो यहां भी अनेक अवस्थाओंमें रहना बन जाता है । अतः डित्थत्व जाति प्रवृत्ति करता हुआ डित्थ शब्द भी जातिशद्व है, एक व्यक्तिमें रहनेवाला धर्म जाति नहीं होता है, किन्तु एक व्यक्तिकी नाना अवस्थाओंमें रहनेवाला डित्थत्व धर्म जाति बन जाता है । अतः डित्थ शद्व कोरी इच्छा के अनुसार कल्पित किया गया यदृच्छाशद्व नहीं है किन्तु जाति शद्व है । यों जातिशद्व, गुणशद्व, क्रियाशद्व, समवायीशद्व, संयोगीशद्व, यादृच्छिकशद्व, ये सभी शद्ब जाति शब्द ही माने जाय ।
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कथं जातिशद्धो जातिविषयः स्याज्जातौ जात्यन्तरस्याभावादन्यथानवस्थानुषंगादिति च न चोद्यं, जातिष्वपि जात्यन्तरस्योपगमाज्जातीनामानन्त्यात् । यथाकांक्षाक्षयं व्यवहारपरिसमाप्तेरनवस्थानासम्भवात् ।
प्रतिवादीके ऊपर किसीका कटाक्ष है कि वैशेषिक और नैयायिकोंने तो जातिमें पुनः अन्य जाति नहीं स्वीकार की है । " व्यक्तेरभेदस्तुल्यत्वं, संकरोऽथानवास्थितिः । रूपहानिरसम्बन्धो, जातिबाधकसंग्रहः " ॥ व्यक्तिकी एकता उसमें रहनेवाली जातिकी बाधक है, यानी एक व्यक्तिमें जाति नहीं रहती है, तभी तो आकाशत्व जाति नहीं है । घटत्व और कलशत्वमें तुल्यत्व दोष होनेके कारण लाघवसे घटत्व जाति है, समान ही व्यक्तियोंमें वर्त्तनेवाली किन्तु अक्षरोंसे बडी ऐसी कलशत्व जाति नहीं मानी गयी है । परस्पर में समानाधिकण्य होते हुए परस्परके अभावका समानाधिकरणपना सांकर्य दोष है, पृथिवी, अप्, तेजः, वायु और मनः ये पांच मूर्तद्रव्य हैं तथा वैशेषिकों के यहां पृथिवी, अप्, तेज, वायु और आकाश ये पांच भूत माने गये हैं । भूतत्वको छोडकर मूर्तपना मनमें है एवं मूर्तपनेको छोड़कर भूतपना आकाशमें है । दोनों मूर्तत्व और भूतत्वका समावेश पृथ्वी, जल, तेज, वायु इन चार द्रव्योंमें है । यों संकर दोष होनेके कारण भूतत्वको जाति नहीं माना है । किन्तु सखण्डोपाधि है । नव्य नैयायिक यहां सांकर्यको दोष नहीं मानते हैं, अतः भूतत्व और मूर्त्तत्व दोनों जाति हैं । अनवस्था दोष हो जानेके कारण सत्तात्व जाति नहीं मानी गयी है, एक माने गये घटत्यमें रहनेवाली घटत्वत्वको जाति होनेका निरास तो एक व्यक्तिमें वर्तनेके कारण ही हो जाता है, किन्तु दो चार जाति या कुछ जातिमान् पदार्थोंमें रहनेवाले धर्मको अनवस्था होनेके कारण जातिपना नहीं है । जैसे घटत्व, गुणत्व, कर्मत्व और सत्ता इनमें सत्तात्त्व मान लिया जावे अथवा गुणत्वत्व, सत्ताव, कर्मवत्व, इनमें से सत्तावत्व माना जावे इत्यादि । तथा जातिमान् पदार्थोंका जातिके द्वारा ही पृथक्करण होता है । विशेष पदार्थ स्वतः व्यावृत्त हैं । यदि विशेषोंमें भी विशेषत्व जाति मानली जावेगी तो विशेषोंके स्वयं व्यावर्त्तकपने स्वरूपकी हानि हो जायेगी । अतः रूपहानि हो जानेके कारण विशेषत्व जाति नहीं मानी है । एवं समवाय पदार्थ में प्रतियोगिता अनुयोगिता, इन दोनोंमें से किसी भी सम्बन्ध करके समवाय नहीं ठहरता है, किन्तु जाति जहां रहती है वहां समवाय सम्बन्धसे ही रहती
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