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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
रूपसे पिरोया गया होकर ज्ञानके द्वारा कालत्व सामान्य जाना जा रहा है। अतः काल शब्द ऐसा होनेपर जातिको कहनेवाला जातिशब्द है। अनेक व्यक्तियोंमें पाये जारहे कालत्व सामान्यमें प्रवर्त रहा है । तथा यह (पूर्व ) दिशा है यह पश्चिम भी दिशा है और यह ( उत्तर ) भी दिशा है इत्यादि प्रकारके अन्वय ज्ञानसे जाने गये पूर्व, पश्चिम, उत्तर आदि दिशाके भेदोंमें दिक्त्व सामान्य ठीक ढंगसे वर्त रहा है । अतः दिक्शद्वकी प्रवृत्ति दिक्त्व जातिमें है । एवं मालामें पिरोये हुए डोरेके समान पटना, चित्रकूट, बनारस, आगरा, सहारनपुर आदि आकाशके विशेष भेदोंमें अन्वयज्ञानका विषय होती हुयी ठहर गयी आकाशत्व जातिमें आकाश शब्द वर्तता हुआ भले प्रकार जाना जा रहा है, अतः आकाश शद्वको भी जातिशद्वपना सिद्ध हो जाता है ( बन जाता है)। यदि कोई कहे कि काल, दिशा और आकाश तो वस्तुतः एक एक द्रव्य हैं, घडी, मास: पूर्व, पश्चिम, चित्रकूट, पटना, आदि भेद तो व्यवहारसे ही कर लिये गये हैं, परमार्थरूपसे अखण्ड द्रव्यमें सद्भूत भेद नहीं हो सकते हैं। ऐसा सिद्धान्त माननेपर तो हम जातिवादी कह देंगे कि उनमें वह कालत्व, दिक्त्व, आकाशत्व, जातियां भी व्यवहारसे ही स्थापित करली जावें कोई हानि न होगी। तिस प्रकारसे भी तो यही सिद्ध हुआ कि काल आदिक शब्द उपचारसे मानी गयी नातिके प्रतिपादन करनेवाले शब्द हैं एकांतरूपसे व्यक्तिको कहनेवाले शब्द नहीं ।
कथमतत्त्वशद्रो जाती प्रवर्तत इति च नोपालम्भः, तत्त्वसामान्यस्यैवाविचारितस्यातत्त्वशद्धनाभिधानात् । तदुक्तं-" न तत्वातत्त्वयोर्भेद इति वृद्धेभ्य आगमः । अतत्त्वमिति मन्यन्ते तत्त्वमेवाविभावितम्" इति ।
फिर कोई यहां यों अव्यर्थ शक्तिके समान वाग्बाण चलावे कि अतत्त्व शब्द जातिमें कैसे प्रवर्तेगा ? क्योंकि अतत्त्व कोई वस्तुभूत नहीं है, अतः उसमें रहनेवाली कोई अतत्त्वत्व जाति नहीं हो सकती है, मीमांसक कहते हैं कि यह उलाहना देना ठीक नहीं है। क्योंकि हम अतत्त्वको तत्त्वोंका सर्वथा निषेध करनेवाला तुच्छ अभाव पदार्थ नहीं मानते हैं, किन्तु नहीं विचारी हुयी तत्त्व जाति ही अतत्त्व इस शब्द करके कही जाती है, सो ही हम जातिवादियोंके यहां ग्रन्थोंमें ऐसा कहा हुआ है कि " तत्त्व और अतत्त्वोंमें कोई भेद नहीं है। इस प्रकार वृद्ध पुरुषोंसे चला आया हुआ आगम प्रमाण है । अच्छे प्रकार नहीं विचारे हुए तत्त्वको ही अतत्त्व ऐसा मानते हैं । अर्थात् अभाव पदार्थ भावरूप है जैसे अनुपलम्भका अर्थ विवक्षित पदार्थका न दीखना किन्तु अन्य पदार्थोका दीख जाना है। सोते हुए मनुष्यके अनुपलम्भ नहीं है, अज्ञान है, उसी प्रकार अविचारित दूसरा तत्त्व ही अतत्त्व है। उस अतत्त्व या अतत्त्वोंमें वस्तुभूत जाति ठहरती है। । एतेन प्रागभावादिशद्वानां भावसामान्य वृत्तिरुक्ता, प्रागभावादीनां भावस्वभाव त्वादन्यथा निरुपारव्यत्वापचरिति ।