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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके तैसे ही अन्य आत्माओंका प्रत्यक्ष भी प्रत्यक्षपना होनेके कारण आत्माका विधान करनेवाला ही होगा । निषेध करनेवाला नहीं । अन्यथा यानी ऐसा न मानकर दूसरी प्रकार मानोगे तो यह प्रत्यक्ष तिस प्रकार विधान करनेवाला ही कैसे बन सकेगा ! कहिये न । अर्थात् सर्वके प्रत्यक्ष अपनी अपनी न्यारी आत्माओंकी विधि करते हैं । ___परेषां प्रत्यक्षं स्वस्य विधायकं परस्य न निषेधकं वा प्रत्यक्षत्वान्मम प्रत्यक्षवत् । विपर्ययो वा अतिप्रसंगविपर्ययाभ्यां प्रत्यात्मस्वसंवेदनस्यैकत्वविधायित्वासिद्धरात्मबहुत्वसिद्धिरात्मैकत्वासिद्धिर्वा । जैसे कि मेरा प्रत्यक्ष अपनी आत्माका विधायक है, निषेधक नहीं, तैसे ही प्रत्यक्षपन हेतुसे सिद्ध होता है कि अन्य जीवोंका प्रत्यक्ष भी अपना या अपनी आत्माका विधायक ही है। दूसरेका निषेधक नहीं है। क्योंकि वह भी तो प्रत्यक्ष प्रमाण है। अथवा यदि ऐसा न मानोगे तो विपरीत नियम भी किया जासकता है। यानी अन्यके प्रत्यक्षोंको निषेध करनेवाला स्वीकार करनेपर अपना प्रत्यक्ष भी आत्माका निषेधक बन जावेगा । प्रत्येक आत्मामें होने वाले स्वसंवेदन प्रत्यक्षको आत्माके एकपनेका ही विधान करनेवालापन सिद्ध नहीं होता है । भावार्थ-अपने अपने स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे अपनी अपनी आत्माऐं जानी जारही हैं, वे अनेक हैं। अतिप्रसंग या प्रसंगसे आत्माओंके बहुपनेकी सिद्धि होजाती है और विपर्ययसे आत्माके एकत्वपनेकी सिद्धि नहीं होपाती है । इसका विवरण इस प्रकार है कि " साध्यसाधनयोाप्यव्यापकभावसिद्धौ व्याप्याभ्युपगमो व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयको यत्र प्रदर्श्यते तत् प्रसंगसाधनम् " । साध्य और साधनके व्याप्यव्यापकभावके सिद्ध होजानेपर व्याप्यका स्वीकार करना नियमसे व्यापकके स्वीकार करनेसे अविनाभावी है। यह जहां दिखलाया जाता है उसको प्रसंग कहते हैं, जैसे कि कोई शिशपा और वृक्षके व्याप्यव्यापकभावको सिद्ध कर चुका है, अब विपरीतज्ञानके वश व्याप्यभूत शिंशपापनको तो ग्रहण करता है, किन्तु वह वृक्षत्वरूप व्यापकको स्वीकार नहीं करता है, ऐसी दशामें उसको समझाया जाता है कि शिंशपापनका स्वीकार करना वृक्षपनेके स्वीकार करनेसे नान्तरीयक ( न अन्तरे भवति व्यापकके न रहनेपर न रहनेवाला) है। अथवा कोई गंवार तीन बीसीको स्वीकार करे और साठ (६०) संख्याको न माने, उसको भी प्रसंगसे साठपना सिद्ध कर दिया जाता है । स्वभाव हेतु तो जाने गये पदार्थमें विशेष व्यवहार कराने वाले माने गये हैं, सर्वथा अज्ञात पदार्थके ज्ञापक नहीं । अद्वैतवादी अन्य पुरुषोंके प्रत्यक्षमें ब्याप्यरूप प्रत्यक्षपनेको तो स्वीकार करते हैं, और अपनी अपनी आत्माके विधायकपने रूप व्यापकको स्वीकार नहीं करते हैं, तो ठीक नहीं है। क्योंकि विधायकपनारूप व्यापकके रहते हुए ही प्रत्यक्षपना रूप व्याप्य रह सकता है । अतः इस प्रसंगके द्वारा प्रत्यक्ष प्रमाणसे अपने अपने आत्माओंका विधान होजानेसे आत्माओंके बहुत्वकी सिद्धि होजाती है । दूसरी बात यह है कि " व्यापकनिवृत्तौ च ' अवश्यभाविनी व्याप्यानवृत्तिः स विपर्ययः " व्यापककी निवृत्ति होनेपर व्याप्यकी निवृत्ति अवश्य
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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