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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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किं पुनः प्रत्यक्षमात्मनो नानात्वस्य विधायकमिति चेत् तदेकत्वस्य किम् ? न ह्यस्मादिप्रत्यक्षमिन्द्रियजं मानसं वा स्वसंवेदनमेक एवात्मा सर्व इति विधातुं समर्थ नानास्मभेदेषु तस्य प्रवृत्तेः योगिप्रत्यक्षं समर्थमिति चेत्, पुरुषनानात्वमपि विधातुं तदेव समर्थमस्तु तत्पूर्वकागमश्चेत्यविरोधः। - अद्वैतवादी स्याद्वादियोंसे पूंछते हैं कि आत्माके नानापनको विधान करनेवाला फिर आपके पास कौनसा प्रत्यक्ष है ? ऐसा प्रश्न करनेपर तो हम भी अद्वैतवादियोंसे पूंछते हैं कि उस आत्माके एकत्वका विधान करनेवाला भी तुम्हारे पास कौनसा प्रत्यक्ष है ? कहिये न । हम सरीखे छद्मस्थ लोगोंका इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष अथवा मन इन्द्रियसे उत्पन्न हुआ प्रत्यक्ष, एवं स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ये तीन तो " सभी पदार्थ एक आत्मारूप ही हैं " इस बातको विधान करनेके लिये समर्थ नहीं हैं । क्योंकि इन तीनों प्रत्यक्षोंकी अनेक आत्माओंके भेद प्रभेदोंको जाननेमें प्रवृत्ति हो रही है। भावार्थस्थूलपनेसे प्रत्यक्षके अन्यवादियोंमें चार भेद प्रसिद्ध हैं, तिनमेंसे इन्द्रियप्रत्यक्ष, मानसप्रत्यक्ष और स्वसंवेदनप्रत्यक्ष ये तीनों प्रत्यक्ष तो आत्माके अनेकपनको सिद्ध करते हैं, एकपनेको नहीं । यदि अद्वैतवादी यों कहें कि चौथा अतीन्द्रियदर्शियों ( केवलज्ञानियों) का योगिप्रत्यक्ष आत्माके एकपनेको जाननेके लिये समर्थ है ऐसा कहनेपर तो हम कहते हैं कि वह योगियोंका प्रत्यक्ष ही आत्माओंके अनेकपनको भी विधान करनेके लिये समर्थ होवे । और दूसरी बात यह है कि उन अतीन्द्रिय दर्शियोंको कारण मानकर उत्पन्न हुआ श्रेष्ठ आगम भी आत्माके अनेकपनका विधान करनेमें समर्थ है । इस प्रकार आत्माके अनेकपनको सिद्ध करनेमें कोई भी विरोध नहीं है ।
" स्वसंवेदनमेवास्मदादेः स्वैकत्वस्य विधायकमिति चेत्, तथान्येषां स्वैकत्वस्य तदेव विधायकमनुमन्यताम् । कथम् ? " ___अद्वैतवादी कहते हैं कि हम आदि सरीखे संसारी जीवोंका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ही अपने आत्माके एकत्वका विधान करनेवाला है, ऐसा कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि तिसी प्रकार अन्य जीवोंके भी वे स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ही अपनी अपनी आत्माके एकत्वका विधान करनेवाले हैं, यह स्वीकार कर लो ! अर्थात् प्रत्येक जीवोंके स्वसंवेदनप्रत्यक्ष अपनी अपनी आत्माके एकत्वका विधान कर रहे हैं। बहुतसे एकत्वोंके समुदायको अनेकत्व ( नानात्व ) कह देते हैं । यहां प्रश्न है कि अनेक जीवोंके स्वसंवेदन प्रत्यक्ष अपने अपने एकत्वका विधान कैसे कर लेवेंगे ? बताओ। अब इसका उत्तर सुनो।
यथैव च ममाध्यक्षं विधात न निषेधृ वा । ।
प्रत्यक्षत्वात्तथान्येषामन्यथैतत्तथा कुतः ॥ ३८॥ जैसे ही मेरा प्रत्यक्ष मेरी आत्माकी विधिको करनेवाला है । निषेधको करनेवाला नहीं है