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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः १२९ प्रसंग होगा । " तुम्हारी रुपिल्ली और मेरा कलदार चेहरासाई बढिया रुपैया” इस कूटनीतिका न्यायमार्गपर चलनेवाले बुद्धिमान् सज्जन उपयोग नहीं करते हैं । इससे सिद्ध होता है कि अभ्रान्तज्ञानके विषय होगये एकत्व और अनेकत्व सब सच हैं। व्यभिचारविनिर्मुक्तेः संविन्मात्रस्य सर्वदा । न भ्रान्ततेति चेत्सिद्धा नानासन्तानसंविदः ॥ ३१ ॥ यथैव मम संवित्तिमात्रं सत्यं व्यवस्थितम् । स्वसंवेदनसंवादात्तथान्येषामसंशयम् ॥ ३२॥ ब्रह्माद्वैतवादी कहते हैं कि शुद्ध प्रतिभास सामान्यका सदा ही संवेदन होता है । जो कुछ देवदत्त, इन्द्रदत्त, बाग, उद्यान आदि जाने जाते हैं वे सब प्रतिभास स्वरूप हैं, तभी तो घट प्रतिभास रहा है, यह ज्ञान या चैतन्यके समानाधिकरणपनेसे घटकी प्रतीति हो रही है शुद्ध प्रतिभासका कोई व्यभिचार दोष नहीं है । अतः एकपना या नानापना इन विशेषणोंको छोडकर केवल प्रतिभासमात्र तत्त्वमें कोई भ्रान्तपना नहीं है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यदि अद्वैतवादी ऐसा कहेंगे तब तो अनेक सन्तानोंके अनेक संवेदन भी सिद्ध हो जावेंगे, जैसे ही एक विवक्षित पुरुष ऐसा अनुभव करता है कि संवादी स्वरूप स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे मेरा केवल सम्वेदन सत्यरूप करके व्यवस्थित है, तिसी प्रकार अन्य जिनदत्त, इन्द्रदत्त आदि अनेक जीवोंके भी संशय रहित होकर प्रमाणात्मक स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे अपनी अपनी संवित्तिओंका ज्ञान होरहा है । इस कारण एक सम्वेदनके समान अनेक संवेदन [ प्रतिभास ] भी सिद्ध हो जाते हैं। ___ बहुत्वप्रत्ययवदेकत्वात्ययोपि मिथ्यास्तु तस्य व्यभिचारित्वात् स्वप्नादिवत् । स्वसंविन्मात्रस्य तु परमात्मनो निरुपाय॑भिचारविनिर्मुक्तत्वात् सर्पदा संवादान्न मिथ्यात्वमिति वदतां सिद्धाः स्वसंविदात्मनो नानासन्तानाः । स्वस्येव पेरषामपि संविन्मात्रस्याव्यभिचारित्वात् । तथाहि । नानासन्तानसंविदः सत्याः सर्वदा व्यभिचारविनिर्मुक्तत्वात स्वसंविदात्मवदिति न मिथ्या प्रतिपाद्यप्रतिपादका, यतः परार्थ जीवसाधनमभ्रान्तं न सिध्येत् । अद्वैतवादी कह रहे हैं कि बहुपनेके ज्ञान समान एकपनेका ज्ञान भी मिथ्या रहो, क्योंकि एकपना, बहुपना, आदि विशेषणोंसे युक्त ज्ञान व्यभिचारी हो जाता है। जैसे कि स्वप्न, इन्द्रजाल, अपस्मार आदि अवस्थाओंमें होनेवाले और एकत्व, बहुत्व, मेरापन, तेरापन आदिको विषय करनेवाले ज्ञान मिथ्या हैं । हम शुद्ध ब्रह्माद्वैतवादी हैं । सम्पूर्ण उपाधिरूप विशेषणोंसे रहित शुद्धप्रतिभास मात्रको ही तो हम परब्रह्म स्वीकार करते हैं । यह शुद्ध प्रतिभास व्यभिचारोसे सर्वथा रहित हैं और पूर्वज्ञानको प्रामाण्य उत्पन्न करानेवाले उत्तरकालवर्ती संवादोसे समी कालोंमें उसको प्रमाणपना 17
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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