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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
बहुपका ज्ञान मिथ्या है ( प्रतिज्ञा ) बहुपनेको जाननेवाला ज्ञान होनेसे ( हेतु ) जैसे कि स्वप्न आदिमें देखे गये घोडे, हाथी, मनुष्य, आदि जीवोंके बहुपनेका ज्ञान मिथ्या है ( दृष्टान्त ) । इस ढंगसे कोई ब्रह्माद्वैतवादी कह रहा है । परन्तु वह कहना उसके विना विचार किये गये वचन हैं । नित्व हैं ।
अस्यापि जीवस्य विभ्रान्तत्वानुषङ्गतः ।
एकोऽहमिति संवित्तेः स्वप्नादौ भ्रमदर्शनात् ॥ ३० ॥
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यदि स्वप्न आदिका दृष्टान्त देकर जीवके नानापनके ज्ञानको भ्रान्त कहोगे तो जीवके अद्वैत यानी जीवके एकपनेके ज्ञानको भी बढिया भ्रान्तज्ञानपनेका प्रसंग हो जावेगा। क्योंकि स्वममें केवल बहुपनेका ज्ञान ही भ्रमरूप नहीं है । किन्तु मैं एक हूं, ब्रह्म एक है, इस प्रकार एकत्वको जाननेवाले ज्ञान भी स्वप्न, अपस्मार आदि अवस्थाओं में भ्रमरूप देखे जाते हैं । अर्थात् स्वममें अपनेको एकपनेका ज्ञान भी झूठा है, तथा च स्वप्न आदिके दृष्टान्तसे एकत्व ( अद्वैत ) का ज्ञान भी अविद्या द्वारा किया गया भ्रमरूप सिद्ध होता है । वास्तवमें देखा जावे तो यह जैनसिद्धान्त अच्छा है कि जो अवस्तुमें होनेवाला ज्ञान है, चाहे वह एकपनेको जाने और भलें ही वह नानापनको जानें सर्व मिथ्या हैं और जो वस्तुभूत पदार्थों में होनेवाला ज्ञान है चाहे वह एकपने या अनेकपनेको विषय करे सब प्रमाणरूप ज्ञान हैं ।
शक्यं हि वक्तुं जीवैकत्वप्रत्ययो मिथ्या एकत्वप्रत्ययत्वात् स्वनैकत्वप्रत्ययवदिति । एकत्वप्रत्ययश्च स्यान्मिथ्या च न स्याद्विरोधाभावात् । कस्यचिदेकत्वप्रत्ययस्य मिथ्यात्वदर्शनात् सर्वस्य मिथ्यात्वसाधनेऽतिप्रसंगादिति चेत् समानमन्यत्र ।
आचार्य महाराज उत्तर देते हैं कि हम भी आपके सदृश इस अनुमान द्वारा आपके प्रति यों कह सकते हैं कि जीवके अद्वैतपनेका ज्ञान ( पक्ष ) मिथ्या है ( साध्य ) एकपनेको जाननेवाला ज्ञान होनेसे ( हेतु ) जैसे कि स्वप्नमें जाने गये एकपनेका ज्ञान मिथ्या है ( दृष्टान्त ) । इस प्रकार सच्चे अनेक अनुमान बनाये जासकते हैं । इस अवसर में अद्वैतवादी हमारे हेतुको अप्रयोजक कहते हैं कि एकत्वका ज्ञान होवे और मिथ्यापना न होवे कोई विरोध नहीं है । अर्थात् जैनोंका हेतु रहजावे और साध्य न रहे, कोई क्षति नहीं दीखती । यदि किसी स्वप्नके एकत्वज्ञानको मिथ्यापन देखनेसे सभी ज्ञानको मिथ्यापना साधा जावेगा, तब तो अतिप्रसंग होगा, यानी स्वप्नके घोडे, नदी, अग्नि सब झूठे हैं । एतावता सत्य व्यवहारके भी अश्व, आदि अवस्तुरूप होजायेंगे । अब जैन कहते हैं कि यदि अद्वैतवादी यों उक्त प्रकार कहें तब तो बहुत ही अच्छा है । दूसरे पक्षकी ओर नानापनमें भी यही न्याय समानरूपसे लगा लेना चाहिये । अर्थात् स्वप्न या भूतावेशके नानापनको मिथ्या देखकर सभी वस्तुभूत अनेक पदार्थोंमें स्थित होरहे नानापनको भी यदि मिथ्या साधा जावेगा तो भी अति