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________________ ___ तत्त्वार्थचिन्तामणिः १२७ आप मानेंगे तो कोई व्यास, गुरु, पिता, आदि तो ब्रह्मतत्त्वके वखाननेवाले प्रतिपादक हैं, शेप दूसरे अल्पबुद्धि शिष्य उनके उत्पन्न करने योग्य प्रतिपाद्य हैं, इस प्रकारकी प्रतीति उन अद्वैत वादियोंको कैसे होयगी ? जिससे कि वे नियत व्यक्तियोंको प्रतिपादक और कतिपय नियत जीवोंको प्रतिपाद्य कह सकें। न जीवा बहवः सन्ति प्रतिपाद्यप्रतिपादकाः । भ्रान्तेरन्यत्र मायादिदृष्टजीववदित्यसत् ॥ २९ ॥ ____ अद्वैतवादी कहते हैं कि जगत्में जीवतत्त्व बहुत नहीं हैं । समझाने योग्य प्रतिपाद्य और समझानेवाले प्रतिपादक ऐसे भिन्न भिन्न जीव कोई नहीं हैं । भ्रमरूप विपर्ययज्ञानमें भले ही भेद दीखे या भिन्न जीव न्यारे न्यारे जाने जावें, जैसे कि तमारारोग वालेको एक आकाशके कैई पिण्डरूप खण्ड दीखते हैं, किन्तु वस्तुतः आकाश एक ही है । तैसे ही भ्रांतिज्ञानके अतिरिक्त समीचीन ज्ञानोंमें ब्रह्माद्वैत ही प्रतीत होता है । संसारी जीवोंके अविद्या लगी हुयी है । इन्द्रजालिया या हस्तकौशलसे मायाचारी पुरुष जैसे एक ही कटोरेमें रखे हुए फूलको किसीके लिये रुपया समझा देता है, अन्यको घडी, विच्छ्र, गहना, आदिका ज्ञान करा देता है । स्वप्नमें या ग्रहावेश होनेपर एवं तीव्र रोगकी अवस्थामें भिन्न भिन्न अनेक असत् पदार्थ दीख जाते हैं । यो माया आदिसे दिखा दिये गये वे जीव जैसे नाना नहीं हैं वैसे ही इन्द्रदत्त, देवदत्त, आदि भी न्यारे न्यारे जीवतत्त्व नहीं हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार अद्वैतवादियोंका कहना प्रशंसनीय नहीं है । असत्य है। एक एव हि परमात्मा प्रतिपाद्यप्रतिपादकरूपतयानेको वा प्रतिभासते अनाद्यविद्याप्रभावात् । न पुनर्बहवो जीवाः सन्ति भ्रान्तेरन्यत्र मायास्वमादिजीववत् तेषां पारमार्थिकतानुपपत्तेः । तथाहि । जीवबहुत्वप्रत्ययो मिथ्या बहुत्वप्रत्ययत्वात् स्वमादिदृष्टजीवबहुत्वप्रत्ययवदिति कश्चित्, तदनालोचिंतवचनम् । उक्त कारिकाका भाष्य इस प्रकार है कि जिस कारण वह परमात्मा ब्रह्म एक ही है । किन्तु अनादि कालकी लगी हुयी अविद्याके प्रभावसे प्रतिपाद्य प्रतिपादक अथवा पितापुत्र, कार्यकारण, आदि रूपों करके अनेक होता हुआ जाना जा रहा है, जैसे कि अखण्ड एक आत्मामें " मेरे सिरमें पीडा है " " मेरे उदरमें सुख है " आदि खण्डकल्पनायें कर ली जाती हैं, वैसे ही अविद्याके वश जीवोंने एकमें अनेकपना मान लिया है । वास्तवमें फिर विचारा जावे तो जीव बहुत नहीं हैं। सिवाय भ्रमके, अर्थात् भ्रान्तिसे अतिरिक्त ज्ञानोंमें जीव एक ही सिद्ध है । जैसे माया, इन्द्रजाल, स्वप्न, मंत्रमुग्ध, मत्त आदि अवस्थाओंमें जीव अनेक जाने जाते हैं किन्तु यह सब धोका है, क्योंकि माया, इन्द्रजाल आदिको और उनसे जाने गये पदार्थोंको वास्तविकपना नहीं बन सकता है । माया आदि या भ्रमज्ञान ये सब आविद्या हैं । उक्त बातको अनुमानसे भी सिद्ध कर दिखाते हैं कि जीवको जीवमें
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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