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________________ १२६ तत्वार्थ श्लोकवार्तिके 1 द्वारा शोंका ज्ञान न हो सकेगा। क्योंकि चेतनात्मकं पदार्थ तो सर्वज्ञके अतिरिक्त विवक्षित एक ही आत्मा करके स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे जाने जाते हैं कान, चक्षु आदिकसे नहीं । जो हरिन्द्रिय गये हैं वे चेतनात्मक नहीं हैं । अचेतन पदार्थोंपर अनेक जीवोंको समानरूपसे जाननेका अधिकार प्राप्त है, चेतनात्मक पदार्थोंपर नहीं । देवदत्तके चेतनात्मक ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, चारित्र, ब्रह्मचर्य, सत्यव्रत आदिकोंका ज्ञान या अनुभव स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे देवदत्तको ही होता है, जिनदत्तको उनका प्रत्यक्ष नहीं, अनुमान या आगमज्ञान भलें ही कोई कर लें । सर्वज्ञ भी केवलज्ञानसे उनको भलें ही जान लेवें । किन्तु स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे नहीं जान पाते हैं । अतः घट, पट, वचन आदि पदार्थ पौगलिक हैं। तभी तो अनेकोंके द्वारा प्रत्यक्षसे जाने जा रहे हैं । 1 अस्त्यजीवः परार्थजीव साधनान्यथानुपपत्तेः । परार्थजीवसाधनं च स्यादजीवश्च न स्यादिति न शंकनीयं तस्य वचनात्मकत्वाद्वचनस्याजीवत्वात् जीवत्वे परेण संवेदनानुपपत्तेः । स्वार्थस्यैव जीवसाधनस्य भावात् । अजीव पदार्थ ( पक्ष ) है ( साध्य ) दूसरोंके लिए जीवकी सिद्धि करना अजीवके विना नहीं बन सकता है ( हेतु ) । यहां कोई साध्य और साधनमें अनुकूल तर्कका अभावरूप दोष उठाता है कि अन्योंके लिए जीव पदार्थकी सिद्धि हो जावे यानी हेतु रह जावे और अजीव पदार्थ न मानना पडे, अर्थात् साध्य न रहे । आचार्य समझाते हैं कि यह शंका तो नहीं करनी चाहिये । क्योंकि अन्योंके प्रति जीवको सिद्ध करानेवाला वचन ( शब्द ) रूप ही पदार्थ है और वह वच अजीव पदार्थ है । यदि वचनको भी जीवतत्त्व माना जावेगा तो दूसरोंके द्वारा संवेदन होना न बन सकेगा । केवल अपने ही लिए जीव स्वरूप पदार्थ ( वचन ) से जीवकी सिद्धि होती रहेगी, जो कि व्यर्थ है । चेतनस्वरूप पदार्थ उसी एक ही जीवको ज्ञान करा सकते हैं, अन्यको नहीं । घट अचेतन है, पुष्पकी गन्ध अचेतन है । तभी तो अनेक जीव उनका चाक्षुष या घ्राणज प्रत्यक्ष कर लेते हैं । देवदत्त सुखका, इच्छाका सर्वज्ञके अतिरिक्त अन्य जीव प्रत्यक्ष क्यों नहीं कर पाते ? इसका कारण यही है कि सुख आदिक परिणाम चेतनस्वरूप हैं । अतींद्रियदर्शी या स्वयं ही सुख आदिकों का प्रत्यक्ष कर पाता है । इतर आत्मामें उनका प्रत्यक्ष नहीं कर सकते हैं । परार्थ जीवसाधनमसिद्धमिति चेत्, कथं परेषां तत्त्वप्रत्यायनम् १ तदभावे कथं केचित्प्रतिपादकास्तत्त्वस्य परे प्रतिपाद्यास्तेषामिति प्रतीतिः स्यात् । यदि कोई यों कहे कि दूसरोंके लिए जीवको सिद्ध करना असिद्ध है । यानी यह हेतु अजीव रूप पक्षमें नहीं वर्तता है, हमें दूसरोंके लिये जीवको सिद्ध ही नहीं करना है, ऐसा कहने पर तो अद्वैतवादियोंके प्रति हमें कहना है कि तब दूसरे के प्रति अपने अभीष्ट होरहे ब्रह्मतत्त्वको कैसे समझाओगे ? बताओ। सभी लोग पेटमेंसे निकलते ही तो ब्रह्मादैतको स्वयं नहीं समझ लेंगे । अन्तमें वचन ही तो सबके समझानेका मुख्य उपाय है । उस समझाने और समझने का भी अभाव यदि
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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