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________________ तत्त्वार्थं चिन्तामणिः १२५ जीवत्व आदि तत्त्व करके प्राप्त करने योग्य यां जानने योग्य यह जीव आदि अर्थ । सो सम्पूर्ण ही तत्त्वार्थ माना गया है । जीवका स्वांश छूटना नहीं चाहिये । और परद्रव्यका वाला भी ग्रहण न होना चाहिये । तस्य जीवस्य भावो जीवत्वं, अजीवस्य भावो अजीवत्वं आस्रवस्य भावः आख. वत्वं, बन्धस्य भावो बन्धत्वं, संवरस्य भावः संवरत्वं, निर्जरायाः भावो निर्जरात्वं, मोक्षस्य भावो मोक्षत्वम् । तत्त्वमिति प्रत्येकमुपवर्ण्यते, सामान्यचोदनानां विशेषेष्ववस्थानप्रसिद्धेः । तथा च जीवत्वादिना तत्त्वेनार्यत इति तत्त्वार्थो जीवादिः सकलो मतः श्रद्धानविषयः । उस जीवरूप तत्का भाव जीवत्व है । अजीवका स्वभाव अजीवत्व है । आस्रवका परिणाम आस्रवत्व है । बन्धकी परिणति बन्धत्व है । संवरका भाव संवरपुना है । निर्जराका पर्याय होना निर्जरात्व है । और मोक्षका सामान्य भाव मोक्षत्व है । तत्पना ऐसा प्रत्येक पदार्थ में कह दिया जाता है । सामान्यके लिये कहे गये प्रेरक वाक्योंका विशेष व्यक्तियोंमें अवस्थित होकर चरितार्थ होना प्रसिद्ध हो रहा है । विद्यार्थी विनीत होते हैं, इस कथनसे भिन्न भिन्न विद्यार्थियों में विनय गुण प्रतिष्ठित किया जाता है और तैसा होनेपर फलितार्थ यह निकलता है कि जीवत्व, अजीवत्व आदि तत्त्वों करके जो गम्य होता है यों वह तत्त्वार्थ है । इस निरुक्ति करके संपूर्ण जीव आदिक सात तत्त्व सम्यग्दृष्टि जीवके श्रद्धानके विषय माने हैं । दूसरे सूत्रके आदि भागका भी वही निष्कर्ष (सार ) है । जीव एवात्र तत्त्वार्थ इति केचित्प्रचक्षते । तदयुक्तमजीवस्याभावे तत्सिध्ययोगतः ॥ २७ ॥ परार्था जीवसिद्धिर्हि तेषां स्याद्वचनात्मिका । अजीवो वचनं तस्य नान्यथान्येन वेदनम् ॥ २८ ॥ इस प्रकरणमें अकेला जीव ही तत्त्वार्थ है, ऐसा कोई वादी प्रकर्षताके साथ बखान रहे हैं । उस ब्रह्माद्वैतवादियोंका कहना युक्तियोंसे रहित है, क्योंकि अजीव तत्त्वका अभाव मान पर उस जीव तत्त्व (परब्रह्म ) की सिद्धि होनेका अयोग है । अद्वैतवादी अपने मनमें स्वयं जीव रूप बनकर तो सन्तोष कर नहीं सकता है । अपने अन्य शिष्य और श्रोताओं को भी ब्रह्माद्वैतकी सिद्धि करानेके लिये और उनको तदात्मक होनेके लिये प्रयत्न अवश्य करेगा । अन्यथा उसके गुरु, माता, पिता, शिष्य जन, आदिमें ( को ) तद्रूप ब्रह्मकी सिद्धि न हो सकेगी । अतः उन ब्रह्माद्वैत वादियोंकी दूसरोंके लिये जीवतत्त्वकी ही सिद्धि करना वचनस्वरूप ही होगी । उसका बचन तो अजीव ( जड ) पदार्थ है अन्यथा यानी घचनको भी जीवरूप माना जावेगा तो अन्य आत्माओं के
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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