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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
सिद्ध हो रहा है । उस शुद्ध चैतन्यमें मिध्यापना किसी भी प्रकारसे नहीं है । आचार्य बोल रहे हैं कि
इस प्रकार कहते हुए अद्वैतवादियोंके यहां स्वसंवेदनस्वरूप अनेक सन्तानें भी सिद्ध हो जाती हैं, अपनी केवल शुद्ध संवित्तियोंका जैसे अपनेको कभी व्यभिचार होना नहीं प्रतीत होता है तैसे ही दूसरे इन्द्रदत्त, गौ, अश्व, आदिको भी अपने अपने केवल संवेदना व्यभिचार रहितपना प्रसिद्ध है । उसी बातको अनुमान द्वारा कह कर स्पष्ट दिखलाते हैं कि अनेक सन्तानोंकी भिन्न भिन्न रूपसे हो रहीं अनेक संवित्तियां ( पक्ष ) सत्य हैं, यानी परमार्थभूत हैं ( साध्य ) । व्यभिचार आदि दोषों से सर्वथा रहित होने के कारण ( हेतु ) । जैसे कि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के द्वारा स्वयं अपने अनुभवमें आ रही संवित्ति स्वरूप हमारा आत्मतत्त्व ( दृष्टान्त ) । भावार्थ — अपने अनुभवमें आ रहा अपना प्रतिभास जिस प्रकार वास्तविक है उसी प्रकार अन्य जीवोंको अपने अपने अनुभवमें आये हुए अनेक प्रतिभास भी वास्तविक हैं । इस प्रकार अनेक आत्माओंके सिद्ध हो जानेपर कोई आत्मा प्रतिपाद्य है, शिक्षा प्राप्त करने योग्य है और अन्य आत्मा प्रतिपादक है शिक्षक है । अतः प्रतिपाद्य और प्रतिपादकरूप अनेक आत्माएं झूठी नहीं हैं जिससे कि दूसरे प्रतिपाद्यके लिये प्रतिपादक द्वारा जीव पदार्थ की सिद्धि करना अभ्रान्त ( प्रामाणिक ) सिद्ध न होवे । अर्थात् दूसरोंके लिये जीव तत्त्व
ब्रह्मतत्त्व ) को सिद्ध करना अनिवार्य है । वह वचनरूप अजीवके बिना न हो सकेगा, अतः अद्वैतवादियों को भी अजीव तत्त्व मानना आवश्यक हुआ । घट, पट, ग्राम, उद्यान, आदि पदार्थ अपने या चैतन्यके, समानाधिकरणपनेको प्राप्त नहीं हैं, अतः वे भी अजीव हैं ।
अन्ये त्वत्तो न सन्तीति स्वस्य निर्णीत्यभावतः । नान्ये मत्तोपि सन्तीति वचने सर्वशुन्यता ॥ ३३ ॥ तस्याप्यन्यैरसंवित्तेर्विशेषाभावतोऽन्यथा ।
सिद्धं तदेव नानात्वं पुसां सत्यसमाश्रयम् ॥ ३४ ॥
सम्भव है अद्वैतवादी यों कहें कि मुझसे भी अतिरिक्त अन्य कोई जिनदत्त, इन्द्रदत्त, आदि आत्मा हैं ही नहीं । इसपर आचार्य महाराज कहते हैं कि तुझसे भिन्न कोई आत्मायें जगत् में नहीं हैं ऐसा निर्णय स्वयं तुमको नहीं हो सकता है । फिर भी विना विचारे यदि तुम यह आग्रह करोगे कि मुझसे भिन्न संसार में कोई आत्मायें नहीं हैं ऐसा कहने पर तो सर्व पदार्थ शून्यरूप हो जावेंगे, क्योंकि अजीव पदार्थोंको आप प्रथमसे ही नहीं मानते हो तथा अपने से अतिरिक्त अन्य जीवोंका भी तुमने निषेध कर दिया है अकेले तुम ही एक तत्त्व अवशेष रहे हो सो अपनी भी सत्ता (खैर) मत समझो ! जैसे कि तुमको अन्य जीवोंकी संवित्ति नहीं होती है, उसी प्रकार अन्य जीवों करके उस तुम्हारी भी संवित्ति नहीं होगी । इस प्रकार चालनी न्यायसे तुम्हारा भी अभाव हो जाता है । गोल चलनी में चाहे कोनसा भी छेद हो भिन्न भिन्न स्थानोंसे गिननेपर सौवां, पचासवां, आदि हो