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तत्वार्थचिन्तामणिः
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है कि जो भावप्राणोंको नहीं धारण करता हुआ नहीं जी रहा है, न जी चुका है, और न जीवेगा इस कारण वह अजीव है । जीव शद्बके साथ नञ् पदका तत्पुरुषसमास करके अजीब शब्द बनाया गया है।
आस्रवत्यनेनास्रवणमात्रं वासवः, बध्यतेऽनेनबन्धमानं वा बन्धः, संवियतेनेन संवरणमात्रं संवरः, निजीर्यतेनया निर्जरणमात्रं वा निर्जरा, मोक्ष्यतेऽनेन मोक्षणमात्रं वा मोक्ष इति करणभावापेक्षया। ____ आस्रव आदि शद्वोंकी निरुक्ति तो करण और भावकी अपेक्षासे है । आत्मा जिस परिणाम करके कर्मोका आस्रव करता है उसको या कर्मोके केवल आनेको आस्रव कहते हैं । आङ् उपसर्गपूर्वक " स्रु गतौ" इस भ्वादिगणकी धातुसे अच् प्रत्यय करनेपर आस्रव शद्ध बनता है। यह लक्षण भावास्रव और द्रव्यास्रव दोनोंमें चला जाता है । जिन परिणामों करके जीव बांधता है अथवा कर्म
और जीवका क्षीरनीरके समान बन्धजाना ही बन्ध है । इस निरुक्तिसे भावबन्ध और उभयबन्धमें लक्षण घटित हो जाता है । " बन्ध बन्धने " इस क्यादि गणकी धातुसे करण या भावमें घञ् प्रत्यय करनेपर बन्ध शब्द गढा जाता है । संवरण किया जाय जिस करके अथवा संवरण यानी आनेवाले कर्मोका रुक जाना मात्र संवर है । सम् उपसर्ग पूर्वक " वृञ् वरणे " इस स्वादि गणकी धातुसे करण या भावमें अप् प्रत्यय करनेपर संवर शब्द बना लिया जाता है, भाव संवर और द्रव्य संवर दोनों इसके लक्ष्य हैं । जिस परिणाम करके कर्मोकी निर्जरा होती है अथवा आत्मासे कर्मोका झडजाना मात्र निर्जरा है । निर उपसर्ग पूर्वक " जृष् वयोहानौ " इस दिवादि गणकी धातुसे करण या भावमें अङ् प्रत्यय करनेपर स्त्रीत्वकी विवक्षामें टाप् प्रत्ययकर निर्जरा शब्द व्युत्पन्न होता है। यहां भी आत्माके परिणामरूप भावनिर्जरा तथा आत्मा और कर्म दोनोंमें रहनेवाले विभाग रूप द्रव्यनिर्जराका संग्रह हो जाता है । " मोक्ष असने " इस चुरादि गणकी धातुसे करण या भावमें घञ् प्रत्यय करनेपर मोक्षपद बनता है आत्माके जिन रत्नत्रयरूप परिणामों करके आत्मा मुक्तिलाभ कर लेता है वह मोक्ष है । अथवा प्रकृत जीव और पुद्गलद्रव्यका पूर्णरूपसे छूट जाना मात्र मोक्ष है। इस प्रकार आस्रव आदि शद्वोंकी करण और भावकी अपेक्षासे निरुक्ति करदी गयी है। शास्त्र परिपाटीसे चले आये हुए अर्थ इन शब्दोंके वाच्य हैं । प्रकृति, प्रत्यय, से जो कुछ आर्ष मार्गके अनुकूल अर्थ निकल आवे वह मध्यमें संतमेतका लाभ है । रूढि और पारिभाषिक शद्वोंमें व्याकरण के अनुसार निरुक्ति करना केवल शद्बोंकी साधुताका प्रयोजक है। अर्थसे उतना घनिष्ट सम्बन्ध नहीं है । अर्थात् जीव आदिक शद्ब बिगडे हुए या अपभ्रंश नहीं हैं । किन्तु व्याकरण शास्त्रसे संस्कार किये गये संस्कृत शब्द हैं।
क्रमो हेतुविशेषात्स्यादुद्वन्द्ववृत्ताविति स्थितेः। जीवः पूर्वं विनिर्दिष्टस्तदर्थत्वाद्वचोविधेः ॥ २० ॥