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तत्वार्थ लोकवार्त
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किये गये पदार्थका शरीर में भीतर जाकर बन्ध हो जाता है, बन्ध हुए विना मोदक आदि पदार्थोंके रस, रुविर आदि नहीं बन सकते हैं। चांदीकी चौअन्नी या पैसेको लील जानेसे मनुष्यमें उसके रस, रुधिर, आदिक नहीं बन पाते हैं। क्योंकि उनका उदरमें बन्ध नहीं हुआ है, सांपके विषको पसोंमें भर भी लिया जावे, तो, संयोगमात्रसे वह मूर्छा करने रूप अपने कार्यको नहीं करता है । हाथमें थोडीसी सुई प्रविष्ट कर दी जावे तो रक्तके साथ विषका बन्ध हो जानेसे बडी भारी क्षति हो जाती है । कोई कोई पदार्थ इतने शक्तिशाली होते हैं कि संयोग होते ही बन्ध जाते हैं और अपना फल दे देते हैं । अभिप्राय यह है कि जो भोज्य पदार्थ शरीर में संयुक्त होनेके पछेि बन्ध जावेगा, उस पदार्थका फल अवयव बनाना या सुख, दुःखका अनुभव कराना हो जावेगा । संयोग और बन्धमें भारी अन्तर है। श्री सिद्ध भगवान् के साथ सिद्धक्षेत्र में फैली हुई कार्मणवर्गणाओं का संयोग है । बन्ध नहीं है । कपोत ( कबूतर ) आदि पक्षियों करके खायी हुयी कङ्कडी और पथरीसे भी रस रुधिर आदिक बन जाते हैं । कोई कोई जीव लोहे चांदी आदिका आहार कर अपना शरीर बना लेते हैं । भिन्न भिन्न जीवोंका आहार्य पदार्थ भिन्न प्रकारका है, किंतु उन सबमें आहार वर्गणायें अवश्य हैं (बन्ध ) । खाद्य या आहार्य पदार्थका कुछ समयों तक आस्रव होना रुक भी जाता है । वृक्ष, चींटी, मक्खी, डांस, पक्षी, मनुष्य, देव, नारकी जीव भी कुछ देर तक स्थूल खानेको रोक देते हैं ( संवर ) । उदाराग्निसे पचाकर निस्सार भागका एक देश क्षय होना भी होता है (निर्जरा ) । मल, मूत्र, आदिके द्वारोंसे विशेष अवयवोंमें एकत्रित हुआ वह निस्सार खाद्य पदार्थ पूर्ण निकल जाता है । मृत्यु के समय तो सम्पूर्ण स्थूल शरीरकी मोक्ष हो जाती है (मोक्ष) । यही क्रम भाषा वर्गणा तथा आहार वर्गणाके कुछ भाग से बने हुए वचन और श्वासमें भी लागू हो जाता है। किंतु स्वात्मलरूप मोक्षके प्रकरण में कर्मोके आस्रव, बन्ध आदिक तत्त्व ही प्रधानरूपसे लिये गये हैं । कर्मोके संवर, निर्जरा, और मोक्ष होनेपर ही नोकर्मके संवर आदि भी ठीक हैं, अन्यथा किसी कामके नहीं । निर्वचनं च जीवादिपदानां यथार्थानतिक्रमात् । तत्र भावप्राणधारणापेक्षायां जीवत्य जीवीज्जीविष्यतीति वा जीवः, न जीवति नाजीवीत् न जीविष्यतीत्यजीवः ।
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जीव आदिक पदोंका व्याकरण द्वारा प्रकृति प्रत्ययसे प्रयोग साधन तो यथार्थ आर्षमार्गका अतिक्रमण न करते हुए कर लेना चाहिए । तिनमें सबसे पहिले जीव शब्दकी निरुक्ति इस प्रकार 1 है कि सुख, चैतन्य, सत्ता स्वरूप भावप्राणोंके धारण करनेकी अपेक्षा करते हुए जो जी रहा है जीवित रह चुका है और भविष्यमें जीवेगा वह जीव है । इस प्रकार " जीव प्राणधारणे " इस भ्वादिगणकी धातुसे कर्तामें के प्रत्यय करनेपर जीव शब्द निष्पन्न होता है । दस प्रकारके द्रव्य प्राणोंमेंसे यथायोग्य चार, छह, सात, आठ, नौ, दस प्राणोंका धारण करना यदि जीवका लक्षण कहा जाता तो अव्याप्ति दोष आता है। किन्तु भावप्राणोंको धारण करना लक्षण करनेसे सिद्ध भगवानोंके भी जीवका लक्षण घटित हो जाता हैं । जीवसे भिन्न तत्त्व कहे गये अजविका लक्षण यह