________________
तत्वार्थ लोकवार्तिके
1
वाले परिणामोंके अतिरिक्त अन्य सभी पदार्थ हेतुओंसे जन्य हैं । स्वाभाविक परिणामोंमें भी पूर्वपर्यायरूप उपादान कारण और प्रतिबन्धकोंका नाश निमित्तकारण तथा कालणुओंरूप उदासीन कारण इनकी आवश्यकता पडती है । अतः संवरके समान निर्जरातत्त्वको भी मोक्षका कारण मानना चाहिये। निर्जराके विना सञ्चित कर्मोंका क्षय नहीं हो सकता है ।
११०
यतश्चानागताघौघनिरोधः क्रियतेऽमुना । तत एव क्षयः पूर्वपापौघस्येत्यहेतुकः ॥ १५ ॥ सन्नप्यसौ भवत्येव मोक्षहेतुः स सम्वरः । तयोरन्यतरस्यापि वैकल्ये मुक्त्ययोगतः ॥ ९६ ॥
जिस कारण से कि उस संवर तत्त्वकरके भविष्य में आनेवाले पापोंके समुदायका निरोध कर दिया जाता है, तिस ही कारणसे पूर्वसञ्चित पापोंके समुदायका भी क्षय कर दिया जावेगा । इस कारण कर्मोंका क्षय होना अन्य कारक हेतुओंसे रहित है । इस प्रकार बौद्धों का कहना भी ज्ञापक हेतुओंसे रहित है। क्योंकि भविष्य कर्मोंको रोकनेवाले रत्नत्रयके स्वरूपका नाम संवर है और संचित कर्मोंका क्षय करनेवाले रत्नत्रयका स्वरूप निर्जरा है । इस कारणसे हो रहा वह कर्मोंका क्षय भी मोक्षका हेतु ही है और वह संवर भी मोक्षका हेतु है । उन दोनोंमेंसे एकके भी विकल ( रहित ) होनेपर मोक्ष होनेका योग नहीं बनता है ।
एतेन संचिताशेषकर्मनाशे विमुच्यते । भविष्यत्कर्मसंरोधापायेपीति निराकृतम् ॥ १७ ॥ एवं प्रयोजनापेक्षाविशेषादास्त्रवादयः । निर्दिश्यते मुनीशेन जीवजीवात्मका अपि ॥ १८ ॥
1
इस कथन करके किसीके इस सिद्धान्तका भी निराकरण हो गया है कि भविष्य में आनेवाले कर्मों का निरोध नहीं करते हुए भी केवल संचित सम्पूर्ण कर्मोका नाश हो जानेपर ही जीव मुक्त हो जाता है । भावार्थ — किसी वादीने मोक्षहेतु नामके तत्त्वसे केवल निर्जराको ही पकड़ा है । संवरकी आवश्यकता नहीं । इसपर स्याद्वादियोंका कहना है कि यदि आनेवाले कर्मोंका द्वार न रोका जावेगा तो कर्मोंका आना सतत बना रहेगा । ऐसी दशा में सञ्चित कर्मोंका नाश होनेपर भी मोक्ष न हो सकेगी । अनेवाले कर्मोंका सञ्चय सर्वदा बना ही रहेगा तब तो किसी भी जीवकी मोक्ष न हो सकेगी। अतः मोक्षहेतु नामका तत्त्व न कहकर स्पष्टरूपसे मोक्षके कारण माने गये संवर और निर्जराका स्वतंत्र रूपसे तत्त्वोंमें कण्ठोक्त प्रतिपादन करना चाहिये । छह द्रव्योंके कहनेसे सम्पूर्ण मोक्षोपयोगी तत्वों का