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तत्त्वार्थचिन्तामाणः
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चारित्ररूप हैं । किन्तु सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान उनके अन्तरंगमें प्रविष्ट होरहा है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे सहित होरही बहिरंग और अन्तरंग क्रियाकी निवृत्ति होकर हुई स्वात्मनिष्टाको सम्यक्चारित्र कहा है। वह संवर और निर्जरातत्त्व रूप पडती है । अतः इस कथन करके इस मिथ्यावादका भी खण्डन करदिया जाता है कि भविष्यमें आनेवाले कर्म बन्धका बन्धहेतुओंके नाश होजानेसे जीव मुक्त होजाता है । अथवा पूर्वमें एकत्रित हुए कर्मोका क्षय करदेनेसे मोक्ष होजाती है । वस्तुतः यह एकान्तवाद मिथ्या है । यद्यपि यह बात जैन सिद्धान्तसे मिलती जुलती है तो भी इन दो बातोंको क्रमसे होती हुयीं माननेवाला एकान्तवादी है । जैनसिद्धान्तमें इन दोनोंके युगपत् रहते ही मोक्ष मानी गयी है । तथा किसी जीवकी बन्ध हेतुओंके ( संवर ) ध्वंससे ही मोक्ष होती है । अन्यकी संचित कर्मोंके क्षय (निर्जरा) से ही मोक्ष होती है, यह मिथ्यावाद है । वस्तुतः प्रत्येक मोक्षगामी जीवकी दोनों ही कारणोंसे मोक्ष होसकती है । यदि मोक्षके हेतुओंका तत्त्वोंमें स्वतन्त्ररूपसे नाम न लिया जावेगा तो उक्त मिथ्यावादीका खण्डन न हो सकेगा। यद्यपि बन्धके हेतुओंका ध्वंस संवररूप है और संचित कर्मोका क्षय निर्जरा है, किन्तु रत्नत्रयके विना कोरे ध्वसरूप संवर और निर्जरा किसी भी कामके नहीं हैं तथा हो भी नहीं सकते हैं । अतः रत्नत्रयसे तादात्म्य रखनेवाले संवर और निर्जरा ही भविष्यके बन्धको रोकते हैं और संचित कर्माका क्षय करदेते हैं । तभी मोक्ष होने पाती है।
सञ्चितस्य स्वयं नाशादेष्यद्वन्धस्य रोधकः । एकः कश्चिदनुष्ठेय इत्येके तदसंगतम् ॥ १३ ॥ निर्हेतुकस्य नाशस्य सर्वथानुपपत्तितः ।
कार्योत्पादवदन्यत्र विस्रसा परिणामतः ॥ १४ ॥
कोई किन्हीं एक वादियोंका यह कहना है कि संचित कर्मोका तो अपने आप नाश हो जाता है। हां ! भविष्यमें आने योग्य कर्मबन्धको रोकनेवाले किसी एक मोक्षहेतुका अनुष्टान करना चाहिये । भावार्थ-मोक्षहेतु नामके तत्त्वसे एक ही संवरतत्त्व मान लेना चाहिये । निर्जरा या रत्नत्रयकी आवश्यकता नहीं । अब आचार्य कहते हैं कि सो उनका कहना असंगत है। क्योंकि हेतु
ओंके विना संचित कर्मोका स्वयं नाश होना सभी प्रकारोंसे नहीं बन सकता है अर्थात् बौद्ध लोग मानते हैं कि क्षणिकपना वस्तुका स्वभाव है। क्षणक्षणमे नाश करनेके लिये कारणोंकी आवश्यकता है, इसपर हम कहते हैं कि कार्योंके उत्पाद जैसे हेतुओंसे होते हैं उसीके सदृश नाश भी हेतुओंसे ही होता है । यदि ऐसा न माना जावे तो संसारका ध्वंस या कर्मीका ध्वंस भी सब जीवोंके विना प्रयत्नसे ही हो जावेगा । फिर बौद्धलोग मोक्षके हेतु आठ अंगोंको क्यों मानते हैं ? स्वभावसे होने