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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके अन्य वादियोंने बन्धका कारण मिथ्याज्ञानको भी माना है और कोई अविद्या और तृष्णाको बन्धका कारण मानते हैं । बन्धहेतु नामका तत्त्व कहनेसे उस तत्त्वका ठीक पता नहीं चलता है । अत:स्वतन्त्ररूपसे आव तत्त्व कहना चाहिये । सिद्धान्त तत्त्वोंका निरूपण पोले ढोगसे नहीं होता है । निणीत किये गये पदार्थोंको “ बावन तोले पाव रत्ती " के न्यायानुसार ठीक ठीक कहना पडता है । जैसे कि बाचन तोले तांबेमें पाव रत्ती पारद भस्म डाल देनेसे बावन तोले पाव रत्ती रसायन (सुवर्ण) बन जाती है । तिस प्रकार आस्रवसे ही बन्ध होता है अविद्या, तृष्णासे नहीं । अविद्या तृष्णा अथवा मिथ्याज्ञान दूरवर्ती पदार्थको खेंच नहीं सकते हैं। धन या धानके जान लेने मात्रसे या इच्छासे वह हमारे पास खिंचकर नहीं आ सकता है, आकर्षण करनेके लिये प्रेरक कारण चाहिये । वह योगरूप आवतत्त्व ही हो सकता है। अतः स्वतन्त्र रूपसे कण्ठोक्त कहा है । योगमें आकर्पण करनेका इतना बल है कि लोकमें नीचे ठहरे हुए तनुवात बलयके वायुकायका जीव लोकके सबसे ऊपर तनुवातवलयमें फैली हुयीं कर्म, नोकर्म, वर्गणाओंको खींचकर अपने शरीररूप बना लेता है । अजगर सांप स्थूल जन्तुओंको सौ गजसे खींच लेता है। अधिक प्यास लगने पर एक लोटा जल आधे विपलमें पी लिया जाता है । थोडी प्यास लगनेपर उदराग्निके द्वारा उतना नहीं खिंचता है । श्वास लेनेमें या छींक लेनेके प्रथम भी कुछ दूरके छोटे छोटे स्कन्ध खिंचे हुए चले आते हैं । लोकमें योगके लिये कोई स्थान दूर नहीं है । कभी कभी अपनी आत्माके निकट संयुक्त हो रहीं वर्गणाओंका या विस्रसोपचयका आस्रवण हो जाता है, योगमें बडी प्रबलशक्ति है । यदि संसारी जीवोमें योग नामकी पर्यायशक्ति न होती तो सर्व जीव सिद्ध भगवान् बन जाते । अतः कर्मनो कर्म बन्धका प्रधानकारण योग ( आस्रव ) स्वतन्त्र रूपसे कहा गया 1 १०८ मोक्षसंपादिके चोक्ते सम्यक् संवरनिर्जरे । रत्नत्रयादृतेन्यस्य मोक्षहेतुत्वहानये ॥ ११ ॥ तेनानागतबन्धस्य हेतुध्वंसाद्विमुच्यते । सञ्चितस्य क्षयाद्वेति मिथ्यावादो निराकृतः ॥ १२ ॥ 1 मोक्षकी भले प्रकार उत्पत्ति करानेवाले संवर और निर्जरातत्त्व कहे गये हैं, जब कि रत्नत्रय के विना अन्यको मोक्षके कारणपनकी हानि है । इसलिये रत्नत्रयस्वरूप संवर और निर्जरातत्त्वोंका स्वतन्त्र रूपसे कहना ठीक है । भावार्थ - मोक्षहेतु नामका तत्त्व कह देनेसे यह निर्णय नहीं हो सकता है कि मोक्षका असाधारण और अव्यवहित पूर्वसमयवर्ती रत्नत्रय ही है । किन्हीं वादियोंने मोक्षका हेतु तत्त्वज्ञान ही माना है । कोई कोई तो गंगास्नान, या कर्मनाशा नदके जलस्पर्शसे मोक्ष होना स्वीकार करते हैं । किन्तु वास्तवमें देखा जावे तो मोक्षका हेतु रत्नत्रय ही है । संवर और निर्जरातत्व
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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