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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
संग्रह नहीं होने पाता है। कहीं सम्यग्दर्शन छूट जाता है, कहीं सम्यक्चारित्रका ग्रहण नहीं होने पाता है तथा किसी मतके अनुसार संवरका ग्रहण नहीं होने पाता है और किसीके मतानुसार मोक्षके अत्यावश्यक कारण हो रहे निर्जरातत्त्वका ग्रहण नहीं होने पाता है। जो लाघव संशयको उत्पन्न करा देवे अथवा पूर्ण कार्यको ही न होने दे तो वे उपस्थिति, परिमाण, अर्थ और गुणसे किये गये लाघव कोरी लघुता [ ओछापन ] है । इस प्रकार यद्यपि सातों ही तत्त्व जीव, अजीव, दो स्वरूप है, तो भी विशेष प्रयोजनकी अपेक्षासे मुनियोंके स्वामी श्री उमास्वामी आचार्यने आस्रव आदिक तत्त्व स्वतंत्ररूपसे कण्ठद्वारा कथन किये हैं। यहांतक सात प्रकार तत्त्वोंके निरूपण करनेका बीज सिद्ध कर दिया है।
बन्धमोक्षौ तद्धेतू च तत्त्वमिति सूत्रं वाच्यं जीवाजीवयोर्बन्धमोक्षोपादानहेतुत्त्वादास्रवस्य बन्धसहकारिहेतुत्वात् संवरनिर्जरयोर्मोक्षसहकारिहेतुत्वात् तावता सर्वतत्त्वसंग्रहादिति येप्याहुस्तेप्यनेनैव निराकृताः । आत्रवादीनां पृथगभिधाने प्रयोजनाभिधानात, जीवाजीवयोश्चानभिधाने सौगतादिमतव्यवच्छेदानुपपत्तेः।।
जो भी कोई वादी यह कहरहे हैं कि चार ही तत्त्व मानने चाहिये । १ बन्ध, २ मोक्ष, ३ बन्धका कारण और ४ मोक्षका कारण, इस प्रकार चार ही तत्त्वोंको निरूपण करनेवाला 'बन्धमोक्षौ तद्धेतू च तत्त्वम् " ऐसा दस स्वरवाला सूत्र श्रीउमास्वामी महाराजको कहना चाहिये 'था । जीव और अजीव तत्त्वोंका बन्ध और मोक्षके प्रति उपादान कारण होनेसे बन्धहेतु और मोक्षहेतु तत्त्वमें गर्म होजाता है । तथा बन्धका सहकारी कारण होनेसे आस्रवका भी बन्धहेतु नामके तत्त्वमें अन्तर्भाव होजाता है । तथैव मोक्षके प्रति सहकारी कारण होनेसे संबर और निर्जराका मोक्षहेतु तत्त्वमें संग्रह होजाता है । अतः तिन चार प्रकार तत्त्वोंके भेद करनेसे सम्पूर्ण प्रकारके तत्त्वोंका संग्रह होजाता है । सातके कहनेसे चारके कहनेमें लाघव भी है । आचार्य समझारहे हैं कि इस प्रकार जो भी वादी कहरहे हैं वे भी इस उक्त कथन करके ही निराकृत होजाते हैं। क्योंकि अभी हमने बडी अच्छी युक्तियोंसे आस्रव आदिकोंके पृथक् पृथक् कहनेमें विशिष्ट प्रयोजनको कहदिया है । छह तत्त्वोंकी अपेक्षा चार तत्त्वोंको कहनेवाले लघुताके याचक वादियोंको यह भारी दोष उपस्थित होगा कि जीव और अजीव, तत्त्वका स्वतन्त्र रूपसे कथन न करनेपर सौगत, चार्वाक, ब्रह्माद्वैतवादी आदिके मतोंका निराकरण न बन सकेगा । क्योंकि सौगतजन बन्धहेतु ( बन्धके कारण ) तत्त्वमें अविद्या और तृष्णाको लेलेंगे । आत्माको वे मानते नहीं हैं । अतः बन्धके उपादान कारण आत्माका स्वीकार करना अनिवार्य न होगा। चार्वाक तो जीव, कर्म, बन्ध, और मोक्षको मानते ही नहीं है । न बन्ध है, न मोक्ष है। राजा, रईसोंके स्थान ही स्वर्ग हैं। कारागृह, रोगशय्या, दरिद्रकुटी ही नरक हैं । जन्मसे मरणपर्यन्त ही चैतन्यशक्ति विना उपादान कारणोंके पृथिवी आदि सहकारियोंसे उत्पन्न होजाती है । इसी प्रकार ब्रह्माद्वैतवादी बन्धका कारण अविद्या या