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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
कहते हैं और अपने अनिष्ट माने गये दुःखोंके लिये सहायक होनेवालीं प्रकृतियोंके बन्धको पापबन्ध कहते हैं । आवके द्रव्यास्रव और भावासव तथा बन्धके द्रव्य, भाव और उभय तीन भेद करनेपर भी पुण्य, पापका इन पांचोंमें अन्तर्भाव हो जाता है । विशिष्ट योगों से नियमित कर्मोके योग्य पुनलके आगमनको द्रव्यासव कहते हैं । मिथ्याल, अविरति, आदिसे युक्त होरहे योगोंको भावाव कहते हैं । आगत कर्मोंमें ज्ञान, दर्शन, आदिको घातकी शक्तिका पड जाना द्रव्यवन्ध है । सञ्चित कर्मोंके उदय होनेपर होनेवाले तथा आये हुए कर्मोकी स्थिति आदिके कारण होगये कोच, अज्ञान, असंयम, अचारित्र आदि भावोंको भावबन्ध कहते हैं । आत्मप्रदेशोंका और कर्मनोकभका दूध, बूरेके समान एकरस सरीखा हो जाना उभयवन्ध कहलाता है । खेंचना, आना, बन्ध जाना, ये सब एक समय में होनेवाले कार्य हैं, जैसे कि चौदहवें गुणस्थानके अन्त समय में तेरह कर्मप्रकृतियां विद्यमान हैं, चौदहवेके अन्तिम समयके उत्तर समय में कर्मोंका नाश १, सात राजू ऊर्ध्वगमन करना २, और ऊपर तनुबात वलय में स्थित हो जाना ३, ये कार्य एक समयमें ही सम्पन्न हो जाते हैं । प्रकृतमें यह कहना है कि पुण्य और पाप स्वतन्त्र तत्त्व नहीं हैं । तिस कारण पुण्य और पाप पदार्थोंका जीव आदिक सात तत्त्वों से भिन्नपने करके श्रद्धान नहीं करना चाहिये । भावार्थ वे दोनों आस्रव और बन्धतत्त्वमें अन्तर्भूत हैं । भिन्न नहीं हैं । तत्त्वोंके अवान्तर भेदोंका भिन्नतत्त्वपनेका श्रद्धान नहीं किया जाता हैं । यदि इसप्रकार उन दोनोंका श्रद्धान किया जावेगा तो तत्त्व व्यवस्थाको अतिक्रमण करनेवाला अतिप्रसंग दोष होगा । क्योंकि यों तो संवरके भेद माने गये गुप्ति, समिति, धर्म, आदिकोंका और संवरके प्रभेद होरहे मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, उत्तम क्षमा आदिका तथा निर्जराके प्रकार कही गयीं यथायोग्य समयमें कर्मोंका उदय होनेपर फल देनारूप यथाकाल निर्जरा और भविष्य में आनेवाले कर्मोका प्रयोगके द्वारा वर्तमानकालमें उदय लाकर अनुभव करना रूप औपक्रमिक निर्जरा, इनका भी संवर और निर्जरातत्त्व से भिन्न तत्त्वपने करके श्रद्धान करने योग्यपनेका प्रसंग हो जावेगा । इस प्रकार तो किसीके मतमें भी तत्त्वोंकी नियमित संख्याकी व्यवस्था नहीं बन सकेगी। अनेक पदार्थोके भेद, प्रभेद, शाखायें, उपशाखायें बहुत हैं ।
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नन्वेवं जीवाजीवाभ्यां भेदेन नास्रवादयः श्रद्धेयास्तद्विकल्पत्वात् अन्यथातिप्रसंगादिति न चोद्यं, तेषां तद्विकल्पत्वेपि सार्वकत्वेन भिदा श्रद्धेयत्वोपपत्तेः ।
यहां पुनः शंका है कि तत्त्वोंके भेदप्रभेदरूप विकल्पोंके भिन्नतत्त्वपने करके श्रद्धान करनेको
यदि आप जैनलोग अनुचित कहते हो, तब तो इस प्रकार जीव और करके आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्षका भी श्रद्धान नहीं करना आदि भी तो उन जीव और अजीव तत्त्वके ही विकल्प हैं । अन्यथा यानी ऐसा न मानकर दूसरे प्रकार से भेद प्रभेदरूप पदार्थोंका भी श्रद्धान करना मानोगे तो आप जैनोंके ऊपर भी अतिप्रसंग दोष होगा । गुप्ति, धर्म आदि भेद प्रभेदोंका भी श्रद्धान करना आवश्यक हो जावेगा, जो कि
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अजीव तत्त्वसे भिन्नपने
चाहिये । क्योंकि आस्रव