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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
किन्तु जीवके परिणाम माने गये कषायोंको निमित्त पाकर पीछेसे पुण्य, पाप नानाभेदरूप बटवारा हो जाता है जैसे कि मेघजलका उन उन निम्ब, आम, अमरुद, केला;आदि वृक्षोंमें प्राप्त होकर तैसा परिणमन हो जाता है । अतः बन्धने योग्य अशुद्धजीव और अशुद्ध पुद्गल द्रव्य ही मानना चाहिये । पुद्गलका पुद्गलके साथ बन्ध होनेमें शुद्ध पुद्गलपरमाणु भी बन्धने योग्य माना गया है। क्यों कि शुद्ध भी परमाणुद्रव्यके अन्तरंगमें अशुद्धताका कारण हो रही स्पर्श गुण संबंधी स्निग्ध रूक्ष पर्यायोंके अविभाग प्रतिच्छेदोंकी द्यधिकता पडी हुयी है और शुद्ध आत्मद्रव्यमें अशुद्धताके कारण बनरहे कषाय, योग, अविरति आदि करण विद्यमान नहीं हैं, उनका अनन्त कालतकके लियै क्षय होजाता है । दूसरी बात शंकाकारने यह कही थी कि बंधके फल भी पुण्य, पाप, हैं। सो भी नहीं मानना चाहिये । क्योंकि बन्धका सुख, दुःख, अज्ञान, मूढपना आदिका अनुभव करना स्वरूप भाव-निर्जरा होजाना फल है । गहरा घुसकर विचार किया जावे तो बन्ध, उदय, फलका एक ही काल प्रतीत होता है । बन्धे हुए कर्मोकी उपशम अवस्थासे फल देनेकी अवस्थामें निराली परिणति है। ठीक बन्ध उसीको कहना चाहिये जहां दोनोंके गुणोंकी च्युति हो जावे, जिन कर्मीका पहिलेसे बन्ध होकर असंख्य समयोंकी स्थिति पड जाती है, वहां भी भावबन्धका लक्षण उनका उदय होते समय ही घटता है । अतः उसी समय सुख दुःख, आदि रूप फल देकर कर्म झड जाते हैं। यही बन्धका फल है, पुण्य पाप ये दोनों बन्धके फल नहीं हैं। किन्तु बन्धे हुए कर्मोकी अवस्था विशेष हैं। आत्माको उत्तर कालमें सुख दुःख आदि फल भुगवानेकी शक्तिवाले पौद्गलिक द्रव्यको पुण्य पाप कहदिया जाता है ।
किं तर्हि ? बन्धविकल्पौ। पुण्यपापबन्धभेदेन बंधस्य द्विविधोपदेशात् । तद्धत्वास्रवविकल्पो वा मूत्रितौ । ततो न सप्तभ्यो जीवादिभ्यो भेदेन श्रद्धातव्यौ तथा तयोः श्रद्धान तिप्रसंगात् । संवरविकल्पानां गुप्त्यादीनां निर्जराविकल्पयोश्च यथाकालौपक्रमिकानुभवनों। संवरनिर्जराभ्यां भेदेन श्रद्धातव्यतानुषंगात् ।
तब तो पुण्य, पाप क्या वस्तु हैं ? बतलाइये । ऐसी जिज्ञासा होनेपर हम जैन उत्तर देते हैं कि वे बन्धके भेद हैं । पुण्यबन्ध और पापबन्धके भेदसे बन्धतत्त्वका आर्ष ग्रन्थोंमें दो प्रकार रूप उपदेश दिया है । अथवा उस बन्धके कारण माने गये आस्रव तत्त्वके ये पुण्य पाप दो भेद हैं, ऐसा उन दोनोंको प्राचीन सूत्रोंमें प्रतिपादन किया है। जिन आस्रवरूप शुभ योगोंसे आकर्षित हुयीं प्रकृतियोंके बहुभागमें प्रशस्त अनुभाग पडगया है, वे योग पुण्यरूपं आस्रव हैं और जिन अशुभ योगोंसे खिंचकर बहुभाग प्रकृतियोंमें कषाय द्वारा अप्रशस्त अनुभाग बन्ध पड गया है वे योग पापास्रव हैं । यों तो नौवें दशवें गुणस्थानोंमें शुभयोगसे भी ज्ञानावरण आदि पापोंका आस्रव हो रहा है और पहिले गुणस्थानमें भी अशुभ योगसे कुछ पुण्य प्रकृतियां आती रहती हैं। किन्तु विशुद्धि
और संक्लेशसे युक्त हो रहीं कषायोंके आधीन होनेवाले अनुभाग बन्धकी विशेषतासे यह कथन है। तथा अपने इष्ट होरहे लौकिक सुखोंके लिये अनुकूल पडनेवाली प्रकृतियोंके बन्धको पुण्यरूपबन्ध