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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके आपको इष्ट नहीं है । और यदि आस्रव आदिको जवि अजीवसे भी सर्वथा भिन्न स्वतन्त्रतत्त्व मानोगे तो ऐसी दशामें आस्रव आदिक सत् पदार्थ ही न होसकेंगे । अश्वविषाणके समान असत् हो जायेंगे। कारण कि जगत्के सम्पूर्ण पदार्थ जीव और अजीब इन दोमें ही गर्भित हैं। अब आचार्य समझाते हैं कि, इस प्रकार कुतर्क करना ठीक नहीं है । क्योंकि यद्यपि उन आस्रव आदिकोंको उन जीव, अजीव तत्त्वका विकल्पपना है तो भी सम्पूर्ण मुमुक्षु जीवोंके लिये आस्रव आदिक हित रूप हैं । इस कारण भिन्न तत्त्वपने करके आस्रव आदिकका स्वतन्त्र उपदेश दिया है। उनको जीव अजीवसे कथञ्चित् भेदकी विवक्षा करके न्यारा मानते हुए स्वतन्त्र श्रद्धान करने योग्यपना सिद्ध हो जाता है। लोकमें भी देखा जाता है कि सामान्यरूपसे कह देनेपर भी विशेष प्रयोजनके लिये विशेषोंका स्वतन्त्र रूपसे कथन कर देते हैं । सर्व भोज्य पदार्थ आ गये हैं, लड्डू भी आ गये हैं । जिस विषयका जो उत्कट अभिलाषी है, उसको उस विषयके कारण, स्थान, प्रतिबन्धक आदिकी प्रतिपत्ति कर लेना चाहिए । कपडेके व्यापारीको कपडेको आयव्यय स्थानका और विशिष्ट ऋतुओंमें उन उन कपडोंके उपयोगका विशेषरूपसे परिज्ञान होना आवश्यक है। सेवकको सेवा वृत्तिके लिए उपयोगी प्रयोगोंका जानना अनिवार्य है । न्यायशास्त्रके अध्यापकको दार्शनिक तत्त्वोंका निर्णय कर लेना विशेष रूपसे श्रद्धेय है। पाचकको रसोई ( भोज्य ) बनानेके उपयोगी उपकरणों और लवण, घृत आदिकके न्यून आधिक्यका विशेषरूपसे विचार करना आवश्यक है । पाचकको इन प्रश्नोंके निर्णय करनेकी आवश्यकता नहीं कि भोजन करनेवाला पुरुष काला है या गोरा ? विद्वान् है ? या मूर्ख ? वैश्य है या ब्राह्मण ? क्योंकि पाक कलाके ज्ञानकी सफलताको प्राप्त करनेमें उक्त प्रश्नोंका उत्तर उपयोगी नहीं है। रोगीको अपनी औषधिके अनुपान, परिणाम, नियत समय, आदिका श्रद्धान करना उपयोगी है । अन्य थोथी बातोंका नहीं । ऐसे ही जिन भव्योंको मोक्ष प्राप्त करनेकी हृदयसे लगन लग रही है, उनके लिये आस्रव आदि तत्त्वोंका श्रद्धान करना हित मार्ग है। तभी तो वे आस्रव और बन्धका त्याग करके संवर और निर्जराको प्राप्त कर मोक्षकी सिद्धि कर सकेंगे । अतः मोक्षरूपी कार्यको सिद्ध करना जिनका लक्ष्य है उन भव्योंको जीव अजीव तत्त्वोंसे भिन्नतत्त्वपने करके उन जीव अजीवकी परिणतियों रूप आस्रव आदि तत्त्वोंका श्रद्धान कर लेना चाहिये । यह युक्ति जच गयी है। बन्धो मोक्षस्तयोर्हेतू जीवाजीवौ तदाश्रयो। ननु सूत्रे षडेवते वाच्याः सार्वत्ववादिना ॥ ९॥ इस कारिकाके द्वारा पुनः कोई शंका करता है कि सभीके लिये हितको चाहनेवाले स्याद्वादी वादीको अपने प्रकृत सूत्रमें ये छह ही तत्त्व कहने चाहिये । १ बन्ध, २ मोक्ष, तथा उन दोनोंके दो हेतु यानी ३ बन्धका कारण, ४ मोक्षका कारण, ५ और उनके आधारभूत दो जीव, ६ अजीव अर्थात् उक्त छह तत्त्वोंके कहनेमें मोक्षके लिए विशेष उपयोगीपना दीख रहा है ।
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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