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तत्त्वार्थ लोकवार्तिके
बातचीत करता है, तो उस व्यक्तिको प्रथम ही भान होता है कि यह कोई स्वार्थसिद्धि के लिये कपट व्यवहार कर मुझको आर्थिक, मानसिक, क्षति पहुंचानेका प्रयत्न कररहा है। यों विश्वासपात्रता और वात्सल्यदृष्टियां न्यून होती जारही हैं । जैनधर्मानुयायियोंमें परस्पर गाय और बछडेके समान I अनुराग होना चाहिये था ।
नामतः स्थापनातो वा जैन: पात्रायतेतराम् । स लम्यो द्रव्यतो धन्यैर्भावतस्तु महात्मभिः ॥ श्रावकाचारोंमें नाम जैन, स्थापना जैन को ही बहुत बडा पात्र कहा है । द्रव्यजैन और भावजैनका समागमतो अतीव पुण्योदयका फल बतलाया है। जैन भाइयोंके साथ स्नेह करनेका, स्वर्गप्राप्तिपूर्वक मोक्षलाभ होजाना फल कहा है । मोक्षमार्ग में प्रवर्त्तानेवाले मुनियों, व्रतियों और, आर्यिकाओंकी श्रेष्ठ भक्ति जैनोंमें परिपूर्ण नहीं पाई जाती है । अतः हमारे जैनबंधुओंको उचित है कि “ गुणिषु प्रमोदं " के अनुसार त्यागी, ब्रह्मचारी विद्वानों और विद्यार्थियों का आदर करें। जहांतक जैनोंको आश्रय देने दिलाने का सौभाग्य प्राप्त होय, उस क्रियामें अहोभाग्य समझें । जैन स्कूलोंमें प्रधानाध्यापक जैन ही होना चाहिये । विद्यालयों, पाठशालाओं; दूकानों, में भी साधर्मियोंकी प्रतिष्ठा बढी रहनी चाहिये। कोई २ भोले भाई कहदेते हैं कि जैन लोग काम करना नहीं जानते हैं । किन्तु यह उनका कथन अलीक है । प्रथम तो यह बात है कि जैनोंमें अब सभी विषयोंके ज्ञाता उपलब्ध होरहे हैं । दूसरे अपने लड़का, लडकियोंको काम करना सिखाया जाता है, तब ये योग्य बनजाते हैं । मात्र स्वकी निंदा और परकी प्रशंसा करदेनेसे काम नहीं चल सकता है ।
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श्रावकाचारोंमें कहा गया है कि - समयिकसाधकसमय द्योतकनैष्ठिकगणाधिपान् घिनुयात् । दानादिना यथोत्तरगुणरागात्सद्गृही नित्यम् ॥ प्रत्येक जैन पुरुषका कर्तव्य होना चाहिये था कि जैन विद्वान्, लोकोपकारक, शास्त्रज्ञ, शास्त्रार्थ करनेवाले पण्डित, व्रतधारी, गृहस्थाचार्य, इनको उत्तरोतर अधिक भक्ति, गुणानुराग करते हुये दान, मान, सन्मान, निष्कपट भाषण, आदि व्यवहारोंसे परितृप्त करें । जैनको देखकर हृदय कमल खिल जाय । वात्सल्य या अवात्सल्यके ऊपर अन्वय, व्यतिरेक रूपसे पर्याप्त विवेचन हो चुका है । अलम् ।
आठवें ठोस प्रभावना अंगका पालना तो विरले पुरुषोंमें ही पाया जाता है । यश की प्राप्ति और कुछ धर्मलाभका लक्ष्य रखकर यद्यपि कतिपय सभायें, प्रतिष्टायें, तीर्थयात्रायें, जिनपूजा, तपइचरण आदि कार्य होते देखे जाते हैं । फिर भी निर्दोष, परमपवित्र जिनशासनके माहात्म्यका प्रकाश 1 करना अभी बहुत दूर है। यदि दश वर्षतक भी ठोस प्रभावनाएं होती रहें तो साढ़े बारह लाख जैनोंकी संख्या बढकर कई गुनी अधिक हो सकती है, और ये साढेबारह लाख भी पक्के जैन बन जावें । जैनोंके अनेक पुत्री, पुत्र अपनी जिनागम शिक्षासे अरुचिकर धर्महीन पुस्तकोंको बडे चावसे पढते हैं । उनमें परीक्षोत्तीर्ण होकर अपनेको कृतकृत्य मानते हैं । तथा श्रोताओंके कलुषित आशय और वक्ताओंकी वचन अकुशलतासे भी जिनशासनकी यथेच्छ प्रभावना नहीं होने पाती है।