________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
९३
- तात्पर्य यह है कि अष्टांगसम्यग्दर्शनकी प्राप्ति अतीव दुर्लभ है । हां, असंभव नहीं है। क्षयोपशसम्यक्त्व और उपशमसम्यक्त्व कभी कभी आधुनिक धर्मात्मा जैनोंको हो जाते हैं । उस समय थोडी देरके लिये निःशंकित आदि गुण भी चमक जाते हैं । हां, पुनः मिथ्यात्वका उदय आजानेपर शंका आदि दोष उपज जाते हैं । हमने उक्त विवेचन किसी व्यक्ति या समाजका हृदय दुखानेके लिये द्वेषवश नहीं लिखा है । अनेक जीव इन दोषोंसे रहित भी हैं। किंतु हमें विवश होकर श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीके सर्वज्ञ आम्नाय प्राप्त गाथानुसार संख मनुष्योंमें एक ही सम्यग्दृष्टि जीव होनेके अखण्ड सिद्धान्तकी पुष्टि करनेके लिये अप्रिय सत्य समालोचना करनी पडी है । हमारे उक्त प्ररूपणसे कोई भाई कुपित नहीं होवें । क्योंकि मैं भी आप लोगोंमेंसे एक व्यक्ति हूं। और उक्त दोषोंसे घिरा हुआ हूं।... ___धर्मप्राण भाइयो ! आठ काठके बिना खाट जैसे तैयार नहीं हो पाती है उसी प्रकार व्यस्त या समस्त रूपसे आठ अंगोंके बिना सम्यग्दर्शन आत्मलाभ नहीं कर सकता है।
___ आजकल हम आदि कितने ही जैनोंमें ज्ञान, कुल, जाति, पूजा, बल, ऋद्धि, तपस्या और शरीरका कितना गर्व है यह किसीसे छिपा हुआ नहीं है । लेख बढ गया है । अतः इन आठ अभिमानोंकी प्रसिद्ध चर्चाको बढाना आवश्यक नहीं दीखता है। तीन मूढता और छः अनायतन ये दोष भी गुप्त और प्रसिद्ध रूपसे स्त्रियों, पुरुषों, बालक, बालिकाओंमें बहुभाग अनुप्रविष्ट होरहे हैं । ..... सम्यग्दृष्टिका भयसे रहित होना शास्त्रोंमें वर्णित है । आजकलके मनुष्योंको आत्मा, धन, प्रतिष्ठा, कुटुंब आदिकी रक्षाके लिए सतत भयग्रस्त रहना पडता है । विशेषतया युद्धके युगमें तो अनेक भयोंके मारे चैन ही नहीं पडता है । अतः सात भयोंसे रहित और सहितपनेकी पाठक आप अपने हृदयमें विवेचना कर लेवें। कहना यह है कि अंतरंग सम्यग्दर्शन या असली जैनधर्मका सर्वस्व इन बहिरंग आडम्बरोंमें निहित नहीं है। कठिन अग्निपरीक्षामें उत्तीर्ण होकर शुद्ध स्वर्ण प्रकट होता है। शास्त्रोंमें लिखा भी है कि बहिरंगमें जिनलिंगके धारी और उनके उपासक ऐसे भेद विज्ञानहीन अनेक जीव नरक गये और जायेंगे भी।
तो हम और आप लोगोंने संभव है कि अनंत बार मुनिव्रत धारणकर अनंती पोतें अहमिंद्रपद प्राप्त किया होय । यथार्थमुनिपना तो बत्तीसवें बारमें मोक्षकी प्राप्ति करा ही देता है। अतः कोरे बाहरके रूपकपर लटू नहीं हो जाना चाहिये । अंतरंगमोह यकर्मके मंदोदयपर लक्ष्य रखिये ! पंचाध्यायीमें सम्यग्दर्शनको आत्माका नितान्त सूक्ष्म, अप्रतिपाद्य अनुजीवी गुण कहा है । मति, श्रुत
और देशावधिज्ञान द्वारा सम्यक्त्व नहीं जाना जा सकता है । अन्य सिद्धान्त अथवा न्यायग्रंथोंमें संवेग, अनुकंपा और आस्तिक्य गुणोंसे सम्यग्दर्शनका प्रकट होना कहा गया है। " तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं " सूत्रका भाष्य करते समय श्लोकवार्तिक ग्रंथमें शंका उठाई गई है कि मिथ्यादृष्टियोंके भी क्रोध आदिकी न्यूनता देखी जाती है । वैराग्यके परिणाम भी हो रहे हैं। दयाभाव भी पाये