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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः सम्यग्दर्शनके चौथे, पांचवे अतीचार अनुसार जैनेतर पुरुषोंकी प्रशंसा और स्तुति करना अनेक भद्रपुरुषों में भी पाया जाता है। हां, कोई उदासीन श्रावक, या मुनि इस अतिचारसे बच गया 'होय, किन्तु बहुतसे जीवोंमें यह दोष अधिकतया पाया जाता है। जैनपण्डितों, ब्रह्मचारी, मुनियोंकी सन्मुख प्रशंसाकरनेवाले जैन सदस्य ही पीछे उन्हींकी निन्दा करते हुये देखे जाते हैं । और वे ही मिथ्यादृष्टियोंकी उच्छ्रासके लिये विना प्रशंसाके गीत गाते रहते हैं । जैनोंद्वारा व्यवहारमें अनेक जैन प्रतिष्ठा प्राप्त होरहे हैं । जैनोंको जैन अधिकारियोंके यहां ही उन अजैनोंकी टलह या खुशामद करनी पडती है, तब कहीं जीविकाका निर्वाह हो पाता है । 1 ९१ " भले सम्यग्दृष्टि कहे जानेवालोंके घरमें भी एक न एक मिध्यादृष्टि पुरुष उच्चकोटिकी प्रशंसा स्तुतियोंको पारहा है । अजैन राजवर्ग, या प्रभुओंकी अथवा देशनेताओंकी प्रशंसा करते ये लोग अघाते नहीं हैं । जब कि साधर्मी भाईसे " जयजिनेन्द्र या सहानुभूतिसूचक दो एक शब्द कहने में ही उनके ऊपर डलियाओंभर आलस्य चढ बैठता है । यही दुर्दशा अमूढदृष्टि गुणकी है । लोकमूढता, देवमूढता, गुरुमूढताओंके फन्देमें अनेक जैन, स्त्री, पुरुष फंस जाते हैं । प्रकट, अप्रगट रूपसे वे उन कार्योंमें आसक्ति कर बैठते हैं। रामलीला, नाटक, सिनेमा, कहानियां, गंगास्नान, कुतपस्विदर्शन, देवताराधन, यंत्र, तंत्र, मंत्र, क्रियायें आदि उपायों द्वारा कितने ही श्रोता मूढदृष्टि प्रकरणों में सम्मति दे बैठते हैं । 1 1 पांचवे उपगूहन अंगकी भी यही विकटस्थिति है । साम्यवादके युगमें दोषोंका छिपाना दोप समझा जाता है । खोटी टेवोंको धार रहे अनेक ठलुआ पुरुष जब दूसरोंके असद्द्भूत दोषोंको प्रसिद्विमें ला रहे हैं, तो सद्भूत दोषोंको प्रगट करनेमें उनको लज्जा क्यों आने लगी ? । साधर्मियोंके अल्पीयान् दोषोंका परोक्षमें या एकान्त में त्रियोगसे छिपा लेना बडा भारी पुरुषार्थ पूर्वक किया गया गुरुतर कार्य हो गया है । निंदा किए बिना चुपका बैठा नहीं जाता है । परितोष देनेपर भी जनता बुराई करनेसे नहीं चूकती है । भले ही उल्टा हमसे कुछ ले लो । किन्तु दूसरों के सद्भूत, असद्भूत दोषोंकी निन्दा करनेकी हमारी कण्डूया ( खाज ) को बुराई कर लेने द्वारा मिट जाने दो, ऐसी उनकी अभ्यर्थना रहती है । छठा अंग स्थितीकरण करना भी बडा कठिन होरहा है । अजैनोंके लिये, राजवर्ग के लिये अथवा यशःसम्बन्धी कार्योंमें धन लुटानेको अनेक धनिक भाई थैलियोंके मुंह खोले हुये हैं । किन्तु निर्धन, धार्मिकोंको या दरिद्रविधवाओं अथवा दीन छात्रोंके उदरपोषणार्थ स्वल्प व्यय करदेनेका उनके आयव्ययके चिट्टे (बजट) में सौकर्य ( गुंजाइश ) नहीं है । तथा व्रती पुरुष भी जैनत्व बढाने और स्थितीकरण करनेमें उतने उद्योगी नहीं है जितने कि होने चाहिये । सातवां अंग वात्सल्य परिणाम भी हीयमान होरहा है। अपने साधर्मियोंके साथ निष्कपटमतिपत्ति करनेका व्यवहार क्वचित् ही पाया जाता है । भलेसे भला मनुष्य भी यदि किसी व्यक्ति से
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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