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________________ नितीयाधिकार ४५ गुणस्थानोंमें होती है । लब्ध्यपर्याप्तक जीव अन्तर्मुहूर्तमें छयासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार जन्म-मरण करता है ।। ३२-३३ ॥ ___ वश प्राणों के नाम तथा उनके स्वामी पश्चेन्द्रियाणि वाकायमानसानां बलानि च । प्राणापानौ तथायुश्च प्राणाः स्युःप्राणिनां दश ।।३४॥ कायाक्षापि सर्वेषु पर्याप्तेष्वान इष्यते । वाग्द्वयक्षादिषु पूर्णेषु मनःपर्याप्तसंशिषु ।।३५|| अर्थ-स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियाँ, बचनबल, कायबल, मनोबल, श्वासोच्छ्वास और आयु, जीवोंके ये दश प्राण होते हैं। इनमें कायबल, इन्द्रियों तथा आयु प्राण सभी जीवोंके होते हैं, श्वासोच्छवास पर्याप्सक जीवोंके ही होता है, वचनबल द्वीन्द्रियादिक पर्याप्तक जीवोंके होता है और मनोबल संज्ञोपञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकके ही होता है। भावार्थ-जिनका संयोग होनेपर जीव जीवित और वियोग होनेपर मृत कहलाता है उन्हें प्राण काहते हैं। इनके भावप्राण तथा द्रव्यप्राणके भेदसे दो भेद हैं। आत्माके ज्ञान-दर्शनादि गुणोंको भावप्राण कहते हैं और इन्द्रियादिकको द्रव्य प्राण कहते हैं । द्रव्यप्राणके ऊपर कहे हुए दश भेद हैं। इनमेंसे एकेन्द्रिय जीवके पर्याप्तक अवस्था में स्पर्शनेन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण तथा अपर्याप्तक अवस्थामें स्वासोच्छ्वासको छोड़कर तीन प्राण होते हैं । द्वीन्द्रिय जीबके पर्याप्तक अवस्था में स्पर्मान और रसना इन्द्रिय, कायबल, आयु, श्वासोच्छवास और वचनबल ये छह प्राण तथा अपर्याप्तक अवस्थाम श्वासोच्छ्वास तथा बचनबलके बिना चार प्राण होते हैं। श्रीन्द्रिय जीवके पर्याप्तक अवस्थामें प्राण इन्द्रिय अधिक होनेसे सात प्राण और अपर्याप्तक अवस्थामें पांच प्राण होते हैं | चतुरिन्द्रिय जीवके पर्याप्तक अवस्था में चक्षुरिन्द्रिय बढ़ जानेसे आठ प्राण तथा अपर्याप्तक अवस्थामें छह प्राण होते हैं। असंज्ञी पञ्चेन्द्रियके पर्याप्तक अवस्थामें कर्णन्द्रिय बढ़ जानेसे नौ प्राण तथा अपर्याप्तक अवस्थामें सात प्राण होते हैं और संजो पञ्चेन्द्रि यके पर्याप्तक अवस्थामें मनोबलके बढ़ जानेसे दश प्राण तथा अपर्याप्तक अवस्थामें सात प्राण होते हैं । तेरहव गुणस्थानमें इन्द्रियों तथा मनका व्यवहार नहीं रहता इसलिये वचनबल, श्वासोच्छास, आयु और कायबल ये चार ही प्राण होते हैं । इसी गुणस्थानमें वचनबलका अभाव होनेपर तीन तथा श्वासोच्छवासका अभाव होनेपर दो प्राण रहते हैं। चौदहवं गुणस्थानमें कायबलका भी अभाव हो जाता है इसलिये सिर्फ आयुप्राण रहता है ।। ३४-३५ ॥
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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