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________________ तत्त्वार्थसार जार संज्ञाओंके नाम आहारस्य भयस्यापि संज्ञा स्यान्मैथुनस्य च । परिग्रहस्य चेत्येवं भवेत्संज्ञा चतुर्विधा ।।३६।। अर्थ आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहह्मज्ञाके भेदसे संज्ञा चार प्रकारकी होती है। ___ भावार्थ-जिन इच्छाओं के द्वारा पीड़ित हुए जीब इस लोक तथा परलोकमें नाना दुःख उठाते हैं उन्हें संज्ञा कहते हैं। उसके चार भेद हैं-१ आहार, २ भय, ३ मैथुन और ४ परिग्रह | इनका स्वरूप इस प्रकार है___आहारसंज्ञा- अन्तरङ्गमें असातावेदनीयकी उदीरणा होनेसे तथा बहिरङ्गमें आहारके देखने और लम झोप उपयोग जाने से नालो पेटलालं जीवको जो आहारकी इच्छा होती है उसे आहारसंज्ञा कहते हैं। यह संज्ञा पहले गुणस्थानसे लेकर छठवें गुणस्थान तक रहती है। भयसंज्ञा-अन्तरङ्गमें भय नोकषायको उदीरणा होनेसे तथा बहिरङ्गमें अत्यन्त भयंकर वस्तुके देखने और उस ओर उपयोग जानेसे शक्तिहीन प्राणीको जो भय उत्पन्न होता है उसे भयसंज्ञा कहते हैं। यह संज्ञा आठवें गुणस्थान तक होती है। ___मैथुनसंज्ञा-अन्तरङ्गमें वेद नोकषायकी उदोरणा होनेसे तथा बहिरङ्गमें कामोत्तेजक गरिष्ठ रसयुक्त भोजन करने, मैथुनकी ओर उपयोग जाने तथा कुशील मनुष्योंकी संगति करनेसे जो मैथुनकी इच्छा होती है उसे मैथुनसंज्ञा कहते हैं । यह संज्ञा नवम गुणस्थानके पूर्वार्ध तक होती है। परिग्रहसंज्ञा-अन्तरङ्गमें लोभकषायकी उदारणा होनेसे तथा बहिरङ्गमें उपकरणोंके देखने, परिग्रहकी ओर उपयोग जाने तथा मूर्छाभाव-ममताभाबके होनेसे जो परिग्रहको इच्छा होती है उसे परिग्रहसंज्ञा कहते हैं। यह संज्ञा दशम गुणस्थान तक होती है। ___ यहाँ सप्तमादि गुणस्थानों में जो भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा बतलाई गई है वे अन्तरङ्गमें उन-उन कर्मोंका उदय विद्यमान रहनेसे बतलाई गई हैं, कार्यरूपमें उनकी परिणति नहीं होती ।। ३६ ।। चौदह मार्गणाओंके नाम गत्यक्षकाययोगेषु वेदक्रोधादिवित्तिषु । वृत्तदर्शनलेश्यासु भन्यसम्यक्त्वसंजिषु । आहारके च जीयानां मार्गणाः स्युश्चतुर्दश ||३७।। ( षट्पदम् )
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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