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________________ सस्वार्थसार भावार्य आहारादिपर्याप्तियोंके लक्षण इस प्रकार हैं १ आहारपर्याग्नि-विग्रहगतिको पारकर जीव नवीन शरीरको रचनामें कारणभूत जिस नौकर्मवर्गणाको ग्रहण करता है उसे खल-रसभागरूप परिणमावनेके लिये जीवको शक्तिके पूर्ण हो जानेको आहारपर्याप्ति कहते हैं। २ शरीरपर्याग्नि-वल भागको हड्डी आदि कोर अवयस्प तथा रसभागको खून आदि तरल अवयवरूप परिणमावनेकी शक्तिके पूर्ण होनेको शरीरपर्याप्ति कहते हैं। ३ इन्द्रियपर्याप्ति-उसी नोकर्मवर्गणाके स्कन्धमेंसे कुछ वर्गणाओंको अपनीअपनी इन्द्रियोंके स्थानपर उस-उस इन्द्रियके आकार परिणमावनेको शक्तिके पूर्ण हो जानेको इन्द्रिय-पर्याप्ति कहते हैं । ४ श्वासोच्छ्वासपर्याग्नि -कुछ स्कन्धोंको श्वासोच्छ्वासरूप परिणमावनेको जीवकी शक्तिके पूर्ण होनेको श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति कहते हैं। ५ भाषापर्याग्नि-वचनरूप होनेके योग्य भाषावर्गणाको वचनरूप परिणमावनेकी जीवको शक्तिके पूर्ण होनेको भाषापर्याप्ति कहते हैं । ६ मनःपर्यानि मनोवर्गणाके परमाणुओंको द्रव्यमनरूप परिणभावनेकी जीवकी शक्तिके पूर्ण होनेको मनःपर्याप्ति कहते हैं । उक्त छह पर्याप्तियोंमें एकेन्द्रिय जीवके आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छवास ये चार पर्याप्तियां होती हैं । दो इन्द्रियसे लेकर असैनी पञ्चेद्रिय तकके जीवोंके भाषापर्याप्ति सहित पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं तथा संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवोंके मनःपर्याप्ति सहित छहों पर्याप्तियाँ होती हैं । जिन जीवोंकी पर्याप्तियां पूर्ण हो जाती हैं उन्हें पर्यातक तथा जिनकी पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं हुई हैं उन्हें अपर्याप्तक कहते हैं । अपर्याप्तक जीवोंके दो भेद हैं--- १ निर्वृत्यपर्याप्तक और २ लब्ध्यपर्याप्तक । जिसकी पर्याप्ति अभी पूर्ण नहीं हुई है किन्तु अन्तर्मुइतके भीतर नियमसे पूर्ण हो जाती है उसे निबृत्यपर्यासना कहते हैं तथा जिसकी पर्याप्ति अभी तक न पूर्ण हुई है और न आगे पूर्ण होगी वह लब्ध्यपर्याप्तक कहलाता है। समस्त पर्याप्तियोंका प्रारम्भ एक-साथ होता है परन्तु पूर्ति क्रम-क्रमसे होती है। सभी पर्याप्तियोंके पूर्ण होनेका काल अन्तर्मुहूर्त है । लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था संमूच्छंन जन्मवाले जीवोंमें होती है, गर्भ और उपपाद जन्मवाले जीवोंमें नहीं। इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था सिर्फ मिथ्यादष्टि गुणस्थानमें ही होती है अन्य गुणस्थानों में नहीं । निर्वृत्त्यपर्याप्तक अवस्था पहले, दूसरे और चौथे गुणस्थानमें जन्मकी अपेक्षा होती है। छठवें गुणस्थानमें आहारशरीरको अपेक्षा और तेरहवं गुणस्थानमें लोकपूरणसमुद्घातको अपेक्षा होती है। पर्याप्तक अवस्था सभी
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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