SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थसार परमाणुको जानता है तो मनःपर्ययज्ञान परमाणुके भी अनन्त भागको जानता है। यद्यपि परमाणु स्वयं अविभागी एकप्रदेशी द्रव्य है लथापि मूक्ष्मताको बललानेके लिये उसमें अनन्तभागोंकी कल्पना की गई है। यदि परमाणुके अनन्तभाग किये जावे तो उनमेंसे एक भागको मनःपर्ययज्ञान जान मकता है । केवलज्ञान समस्त द्रव्योंकी समस्त पर्यायोंको एक साथ जानता है। एक-एक द्रव्यकी अनन्त पर्याय हो चुकी हैं, अनन्तानन्त आगे होनेवाली हैं और वर्तमानमें एक पर्याय है, इन सबके समूहको केवलनान एक-साथ जामना है।। ३०-३३ ।। एक जीवमें एक साथ कितने ज्ञान हो सकते हैं ? जीवे युगपदेकस्मिन्नेकादीनि विभावयेत् । ज्ञानानि चतुरन्तानि न तु पञ्च कदाचन ।। ३४ ।। अर्थ–एक जीवमं एकसाथ एकको आदि लेकर चार तक ज्ञान हो सकते हैं । पाँच ज्ञान एक साथ कभी नहीं होते। भावार्थ-मति आदि पाँच ज्ञानोंमें प्रारम्भके चार ज्ञान क्षायोपशामक ज्ञान हैं और केवलज्ञान क्षायिकज्ञान है। क्षायिकज्ञान ज्ञानावरणके क्षयम होता है तथा वह अकेला ही रहता है अर्थात उसके प्रकट होनेपर ज्ञानमें मतिज्ञानादि चारका व्यवहार मष्ट हो जाता है। एक जीवके एकसाथ एकसे लेकर चार तक ज्ञान हो सकते हैं, जैसे एक ज्ञान हो तो केवलज्ञान, दो हों तो मति और श्रुत, तीन हों तो मति, श्रुत और अवधि अथवा मति, श्रुत और मनःपर्यय और चार हों तो मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ।। ३४ ।। मिथ्याज्ञान तथा उसको अप्रमाणता मतिः श्रुतावधी चैव मिथ्यात्वसमवायिनः । मिथ्याज्ञानानि कथ्यन्ते न तु तेषां प्रमाणता ।।३।। अविशेषात्सदसतोरुपलब्धेयदृच्छया । यत उन्मत्तवज्ज्ञानं न हि मिथ्यादृशोऽञ्जसा ।।३६।। अर्थ-मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान यदि मिथ्यात्वके साथ सम्बन्ध रखने वाले हैं तो मिथ्याज्ञान कहे जाते हैं और उस दशामें उनमें प्रमाणता नहीं मानी जाती। मिथ्यादष्टि जीवको सत् और असत् वस्तुका ज्ञान पागल मनुष्यके समान स्वेच्छानुसार समानरूपसे होता है, इसलिये उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं कहलाता है। भावार्थ-मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy