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________________ प्रथम अधिकार जान सकता है परन्तु मनःपर्ययज्ञान पैंतालीस लाख योजनको ही बात जानता है। अबधिज्ञानमें जितनी विशुद्धता है उससे मनःपर्ययज्ञानको विशुद्धसा कई गुणी है । अवधिज्ञानका उत्कृष्ट विषय एक परमाणु है, पर मनःपर्ययज्ञानका विषय परमाशुका अनन्तवाँ भाग है ॥ २९३ ॥ केवलज्ञानका लक्षण असहायं स्वरूपोत्थं निराकरणमक्रमम् ॥३०॥ घातिकर्मक्षयोत्पमं केवलं सर्वभावगम् । अर्थ जो किसी बाह्य पदार्थको सहायतासे रहित हो, आत्मस्वरूपसे उत्पन्न हो. आवरणसे रहित हो, क्रमरहित हो, घातियाकर्मोके क्षयसे उत्पन्न हुआ हो तथा समस्त पदाथोंको जानने वाला हो, उसे केवलज्ञान कहते हैं ।। ३०३ ।। मतिज्ञानादि पांच ज्ञानोंका विषयनिवन्ध भतेविषयसम्बन्धः श्रतस्य च निबुध्यताम् ।।३।। असर्वपर्ययेष्वत्र सर्वद्रव्येषु धीधनः । असर्वपर्ययेष्विष्टो रूपिद्रव्येषु सोऽवधेः ॥३२॥ स मनःपर्ययस्येष्टोऽनन्तांशेऽयधिगोचरात् । केवलस्याखिलद्रव्यपर्यायेषु स सूचितः ||३३॥ अर्थ-मत्तिज्ञान और श्रुतज्ञानका विषय सम्बन्ध समस्त पर्यायोंसे रहित समस्त द्रव्योंमें बुद्धिमानोंको जानना चाहिये । अवधिज्ञानका विषय सम्बन्ध समस्त पर्यायोंसे रहित रूपीद्रव्यों-पुद्गल और संसारी जीवाम है। मनःपर्ययज्ञानका विषय सम्बन्ध अवधिज्ञानके विषयसे अनन्त भाग है और केवलज्ञानका विषय सम्बन्ध समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायोंमें कहा गया है। ___भावार्थ-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान जानते तो समस्त द्रव्योंको हैं परन्तु उनकी कुछ पर्यायोंको ही जानते हैं, समस्त पर्यायोंको नहीं । ये दोनों ज्ञान अरूपी द्रव्योंको अनुमान तथा आगमके द्वारा जानते हैं। अवधिज्ञान रूपीद्रव्योंको जानता है परन्तु उनकी सब पर्यायोंको नहीं जानता। पुद्गलद्रव्य तो रूपी हैं ही, परन्तु उपचारसे संसारी जीवोंको भो रूपी कहा गया है। सूक्ष्मताकी अपेक्षा अवधिज्ञानका सर्वोत्कृष्ट भेद सर्वावधिज्ञान परमाणु तकको जानता है । मनःपर्ययज्ञानका विषय अवधिज्ञानके विषयसे अनन्तवें भाग है अर्थात् अबधिज्ञान १ 'विबुध्यताम्' पाठान्तरम् ।
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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