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________________ सत्त्वार्थसार प्रकारके मनःपर्यायज्ञान मुनियोंके ही होते हैं तो भी विपुलमति उन्हीं मुनियोंके होता है जिनका चारित्र उत्तरोत्तर बढ़ रहा है तथा जो किसी ऋद्धिके धारक होते हैं। विषयकी अपेक्षा भी दोनों में विशेषता है। विषयका वर्णन द्रव्य-क्षेत्रकाल और भाव इन चारकी अपेक्षा होता है। जैसे ऋजुमतिके जघन्य द्रव्यका प्रमाण औदारिक शरीरके निर्जीणं समयप्रबद्धप्रमाण है और उत्कृष्ट द्रव्यका प्रमाण चक्षुरिन्द्रियके निर्जराद्रव्यप्रमाण है। अर्थात् समूचे औदारिक शरीरसे जितने परमाणुओंका प्रचय प्रत्येक समय खिरता है उसे जघन्य ऋजुमति जानता है और चक्षुरिन्द्रियसे जितने परमाणुओका प्रचय प्रत्येक समय दिरता है उसे उत्कृष्ट ऋजुमति जानता है। ऋजुमतिके उत्कृष्ट द्रव्यमें मनोद्रव्यवर्गणाके अनन्तवें भागका भाग देनेपर जो द्रव्य बचता है उसे जघन्य विपुलमति जानता है । विस्रसोपचयसे रहित आठ कर्मोके समयप्रबद्धका जो प्रमाण है उसमें एकबार ध्रवहारका भाग देनेपर जो लब्ध आता है उतना विपुलमतिके द्वितीय द्रव्यका प्रमाण होता है । इस द्वितीय द्रव्य के प्रमाणमें असंख्यातकल्पोंके जितने समय हैं उतनी बार ध्रुवहारका भाग देनेपर जो द्रव्य शेष बचता है वह विपुलमतिका उत्कृष्ट द्रष्य है । क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य ऋजुमतिज्ञान दो तीन कोश और उत्कृष्ट ऋजुमतिज्ञान सात-आठ योजनकी बातको जानता है । तथा जघन्य-विपुल मतिज्ञान आठ-नव योजन और उत्कृष्ट विपुलमतिज्ञान पैंतालीसलाख योजन विस्तृत अढ़ाई द्वीपकी बातको जानता है । मानुषीत्तरपर्वत तकके क्षेत्रको अढ़ाई द्वीप कहते हैं परन्तु विपुलमतिज्ञान मानुषोत्तरपर्वतके बाहर कोणोंमें स्थित पदार्थको भी जानता है, इतनी विशेषता जाननी चाहिये। मनःपर्ययज्ञानका विषयक्षेत्र गोल न होकर समचतुरस्रघनप्रतररूप पैंतालीस लाख योजन प्रमाण है। कालकी अपेक्षा जघन्य ऋजुमति दो-तीन भव और उत्कृष्ट ऋजुमति सात-आठ भवको बात जानता है तथा जघन्य विपुलमतिज्ञान आठ-नौ भव तथा उत्कृष्ट विपुलमत्तिज्ञान पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण कालकी बातको जानता है। भावकी अपेक्षा यद्यपि ऋजुमतिका जघन्य और उत्कृष्ट विषय आवलिके असंख्यात भाग प्रमाण है तो भी जघन्य प्रमाणसे उत्कृष्ट प्रमाण असंख्यातगुणा है। विपुलमतिका जघन्य प्रमाण ऋजुमतिके उत्कृष्ट विषयसे असंख्यातगुणा है और उत्कृष्ट विषय असंख्यातलोक प्रमाण है। इस प्रकार मनःपर्ययज्ञानके दोनों भेदोंमें परस्पर अन्तर है ! अब अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें विशेषता बताते हैं । अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें स्वामी, क्षेत्र, विशुद्धि और विषयकी अपेक्षा विशेषता है। जैसे अवधिज्ञान तो चारों गतियोंके जीवोंके हो सकता है परन्तु मनःपर्यवज्ञान मनुष्यगति में छठवें गुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक्रके जीवोंके ही होता है | अवधिज्ञान उत्कृष्टताकी अपेक्षा असंख्यात लोककी बात
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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