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________________ प्रथम अधिकार मनापर्ययज्ञानका लक्षण और भेद परकीयमनास्थार्थज्ञानमन्यानपेक्षया । स्यान्मनःपर्ययो भेदौ तस्यर्जुविपुले मती ॥२८॥ अर्थ--अन्य पदार्थों की अपेक्षाके विना दूसरेके मनमें स्थित पदार्थको जानना मनःपर्यय ज्ञान है। इसके ऋजुमति और विपुलमति इस प्रकार दो भेद हैं। ___भावार्थ-जो किसी बाह्य पदार्थकी सहायताके विना-ही दुसरेके मनमें स्थित रूपीपदार्थको जाने उसे मनःपर्यय ज्ञान कहते हैं। इसके दो भेद हैं१ ऋजुमति और विपुलमांत । इनका स्वरूप इस प्रकार है ऋजुमति-सरल मन-वचन-कायसे चिन्तित दुसरेके मनमें स्थित रूपी पदार्थको जो जाने उसे ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान कहते हैं। विपुलमति-सरल तथा कुटिल मन-वचन-कायसे चिन्तित दूसरेके मनमें स्थित पदार्थको जाने उसे विपुलमति मनःपर्ययज्ञान कहते हैं। पुद्गलद्रव्य त्रिकालविषयक है। उसमें वर्तमान जीवके द्वारा जिसका चिन्तन किया जा रहा है ऐसे पुद्गलद्रव्यको ऋजुमतिज्ञान जानता है और भूतकालमें जिसका चिन्तन किया हो, भविष्यकालमें जिसका चिन्तन किया जावेगा और वर्तमान कालमें जिसका चिन्तन किया जा रहा हो उसे विपुलमति जानता है ।। २८ ।। ऋजुमति और विपुलमतिमें तथा अवधि और मन:पर्ययज्ञानमें विशेषता विशुद्धधप्रतिपाताभ्यां विशेषश्चिन्त्यतां तयोः । स्वामिक्षेत्रविशुद्धिभ्यो विषयाच्च सुनिश्चितः ॥२९॥ स्थाद्विशेषोऽवधिज्ञानमनःपर्ययबोधयोः । अर्थ-विशुद्धि और अप्रतिपातकी अपेक्षा ऋजुमति तथा विपुलमतिमें विशेषता जाननी चाहिये । और स्वामी, क्षेत्र, विशुद्धि तथा विषयकी अपेक्षा अवधि और मनःपर्ययज्ञानमें विशेषता सुनिश्चित है। भावार्थ-ऋजुमतिज्ञानकी अपेक्षा विपुलमतिज्ञानमें विशुद्धता अधिक है। इसके सिवाय ऋजुमति प्रतिपाती है अर्थात् ऐसे जीवोंको भी हो जाता है जो उपरितन गुणस्थानोंस पतित होकर नीचे आ जाते हैं परन्तु विपुलमति उन्हीं जीवोंको होता है जो उपरितन गुणस्थानोंसे नीचे नहीं आते । तात्पर्य यह है कि ऋजुमति उपशमक और क्षपक दोनों श्रेणीवाले मुनियोंके होता है जबकि विपुलमति क्षपकनेणीवाले मुनिके ही होता है। यद्यपि सामान्यरूपसे दोनों
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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