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________________ मम अविर । उक्त कहते हैं । पर्वतादिक स्थिर पदार्थको ध्रुव कहते हैं और गतिशील पदार्थको अध्रुव कहते हैं । इन बहु आदि बारह प्रकारके पदार्थोंके अवग्रह आदि चार ज्ञान होते हैं | इसलिये बारहमें चारका गुणा करनेपर अड़तालीस भेद होते हैं। । ये अड़तालीस भेद पाँच इन्द्रियों तथा मनसे होते हैं, इसलिये अड़तालीसमें छहका गुणा करनेपर दो सौ अठासी भेद होते हैं । इनमें व्यञ्जनावग्रहके अड़तालीस भेद मिलानेपर मतिज्ञानके कुल तीनसौं छत्तीस भेद होते हैं। ___व्यक्त अर्थात् स्पष्ट पदार्थके अवग्रह आदि चारों ज्ञान होते हैं परन्तु व्यञ्जन अर्थात् अस्पष्ट पदार्थके ईहा, अवाय और धारणा ये तीन ज्ञान नहीं होते, मात्र अवग्रहजान होता है और वह भी चक्षु और मनको छोड़कर शेष चार इन्द्रियोंसे होता है। चक्षु और मनसे न होनेका कारण यह है कि ये दोनों इन्द्रियाँ अप्राप्यकारी हैं अर्थात् पदार्थसे असम्बद्ध रहकर उसे जानती हैं। चक्षु और मनको छोड़कर शेष चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं क्योंकि पदार्थसे सम्बद्ध । होकर उसे जानती हैं। तीन सौ छत्तीस भेदोंमें अवग्रहके ७२ + ४८ = १२० भेद हैं तथा शेष तीन ज्ञानोंके बहत्तर बहत्तर भेद हैं ॥ २१-२३ ॥ ___ श्रुतज्ञानका स्वरूप तथा भेद मतिपूर्व श्रुतं प्रोक्त मविस्पष्टार्थतर्कणम् ॥२४॥ तत्पर्यायादिभेदेन व्यासाविंशतिधा भवेत् । अर्थ-मतिज्ञामके बाद अस्पष्ट अर्थको तर्वाणाको लिये हुए जो ज्ञान होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। विस्तारको अपेक्षा पर्याय आदिके भेदसे श्रुतज्ञान बीस तरहका होता है। भावार्थ-श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति मतिज्ञानपूर्वक होती है अर्थान् मतिज्ञान पहले होता है और श्रुतज्ञान उसके बाद होता है। श्रुतज्ञानमें इन्द्रिय और मनका आलम्बन रहता है इसलिये यह परोक्षप्रमाण कहलाता है । इसमें पदार्थको तर्कणा प्रत्यक्षज्ञानकी तरह स्पष्ट नहीं रहती। क्रमिकवृद्धिको अपेक्षा । इसके १ पर्याय, २ पर्यायसमास, ३ अक्षर, ४ अक्षरसमास, ५ पद, ६ पदसमास, 1. संघात, ८ संघातसमास, ९ प्रतिपत्तिक, १० प्रतिपत्तिकसमास, ११ अनुयोग, । १२ अनुयोगसमास, १३ प्राभृतप्राभृत, १४ प्राभूतप्राभूतसमास, १५ प्राभृत, १६ प्राभृतसमास, १७ वस्तु, १८ वस्तुसमास, १९ पूर्व और २० पूर्वसमास ये बस भेद होते हैं। इनका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है १ पर्याय-सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें स्पर्शन इन्द्रियसम्बन्धी मतिज्ञानपूर्वक जो लब्ध्यक्षर नामका सर्वजघन्य धुतज्ञान होता है उसे पर्यायझान कहते हैं। Fri
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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