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________________ तत्त्वार्थसार व्यञ्जनस्य तु नेहाया एक एव अवग्रहः । अप्राप्यकारिणी चक्षुर्मनसी परिवर्ण्य सः ॥२३॥ चतुर्भिरिन्द्रियैरन्यैः क्रियते प्राप्यकारिभिः । अर्थ-मतिज्ञानमें सबसे पहले अवग्रह होता है, उसके बाद ईहा होती है, उसके पश्चात् अवाय होता है और उसके बाद धारणा होती है । अर्थात् अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये मतिज्ञानके क्रमसे विकसित होनेवाले भेद हैं । ये चार भेद बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त और अध्रुव तथा इनसे विपरीत एक, एकविध, अक्षिण, निःसृत उक्त और ध्रुव इन बारह प्रकारके पदार्थ के होते हैं। इनमेंसे व्यक्त अर्थात् स्पष्ट पदार्थके अवग्रह आदि चारों ज्ञान होते हैं परन्तु व्यञ्जन अर्थात् अस्पष्ट पदार्थ के ईहा आदि तीन ज्ञान नहीं होते, मात्र अवग्रह ही होता है। व्यजनावग्रह दूरसे पदार्थको जाननेवाले चक्षु और मनको छोड़कर शेष चार इन्द्रियोंसे होता है। चक्षु और मनके सिवाय शेष इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं अर्थात् पदार्थसे सम्बद्ध होकर पदार्थको जानती हैं। भावार्थ-योग्य क्षेत्रमें स्थित पदार्थके साथ इन्द्रियका सन्निपात होनेपर दर्शन होता है और दर्शनके बाद जो प्रथम ग्रहण होता है उसे अवग्रह कहते हैं, जैसे चक्षु इन्द्रियके द्वारा 'यह शुक्ल रूप है ऐसा ग्रहण होना अवग्रह है । अवग्रहके द्वारा जाने हुए पदार्थमें उसकी विशेषताको जाननेका जो व्यापार है उसे ईहा काहते हैं, जैसे अवग्रहके द्वारा जाना हुआ शुक्लरूप वलाकाका है या पताकाका । ईहाके द्वारा जाने हुए पदार्थका विशिष्ट चिह्नोंसे निश्चय हो जाना अवाय है, जैसे उत्पतन और निपतनके द्वारा पूर्व उदाहरणमें निश्चय हो जाना कि यह वलाका ही है अथवा फहरानेकी क्रिया देखकर निश्चय होना कि यह पताका हो है । अवायके द्वारा निश्चित पदार्थको कालान्तरमें नहीं भूलना-उसकी स्मृति रखना धारणा है । अवग्रहादि वार ज्ञान क्रमसे होते हैं। जब किसी नवीन पदार्थको देखते हैं तब इनकी क्रमिक उत्पत्ति स्पष्ट ही अनुभवमें आती है और जन्न किसी पूर्वानुभूत पदार्थको देखते हैं तब इनकी उत्पत्ति शीनतासे होनेके कारण अनुभवमें नहीं आती । अवनह आदि चार प्रकारके ज्ञान बहु आदि पदार्थोके होते हैं। बहुत संख्या अथवा बहुत प्रमाणवाली वस्तुको बहु कहते हैं । इससे विपरीतको एक कहते हैं। बहुत प्रकारकी वस्तुओंको बहुविध कहते हैं और एक प्रकारको वस्तुकी एकविध कहते हैं। शीघ्रतासे परिवर्तित होनेवाली वस्तुको क्षिप्र कहते हैं । इससे विपरीतको अक्षिप्त कहते हैं । तालाब आदिसे बाहर नहीं निकले हुए पदार्थको अनि:सृत कहते हैं और बाहर निकले हुए पदार्थको निःसृत कहते हैं । विना कहे हुए पदार्थको अनुक्त कहते हैं और कहे हुए पदार्थको
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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