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तत्त्वार्थसार
अनुषस्य शेषनार्थं मुनीश्वरा देशयन्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमति यस्तस्य देशना नास्ति ॥ ६ ॥
मुनीश्वर अज्ञानी जीवको ज्ञान करानेके लिये अभूतार्थं व्यवहारनथका उपदेश करते है । जो जीव केवल व्यवहारनयको ही जानता है, उसके लिये उपदेश नहीं है अर्थात् वह उपदेशका पात्र नहीं है ॥
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माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगोतसिंहस्य ।
व्यवहार एवं हिता निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य || ७ ||
जैसे सिंहको बिल्कुल न जाननेवाले पुरुषको 'यह बालक सिंह है' ऐसा कहनेपर वह बालकको ही सिंह मान लेता है वैसे ही निश्चयको न जाननेवाला व्यवहारको हो निषय मान लेता है ॥
व्यवहारनिश्चय यः प्रबुध्य तस्वेन भवति मध्यस्थः ।
प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ॥ ८ ॥
जो व्यवहार और निश्चयको यथार्थ रूप से जानकर मध्यस्थ रहता है-पक्षपात नहीं करता, वही शिष्य उपदेशका सम्पूर्ण फल पाता है |
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असग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति
कर्मबन्धो यः ।
स विपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः ।। २११ ॥
एकदेश रत्नत्रय की भावना करनेवाले पुरुषको जो कर्मबन्ध होता है वह बच्च विपक्षकृत है रागके कारण होता है। अवश्य ही जो मोक्षका उपाय है वह बन्धनका उपाय नहीं है | रत्नत्रयमिह हेतुनिर्वाणस्यंव भवति नान्यस्य ।
आस्रवति यत्तु पुण्यं शुभोपयोगोऽयममराधः ।। २२० ।।
इस लोक में रत्नत्रय निर्वाणका ही हेतु है, अन्यका नहीं । रत्नत्रय का पालन करते पुण्यका आस्रव होता है वह शुभोपयोगका अपराध है ।
ये सब पुरुषार्थसिद्धयुपायके श्लोक हैं ।
पुण्य-पापके विषय में तत्त्वार्थसारके दो श्लोक बहुत महत्वपूर्ण हैं
हेतुकार्य विशेषाभ्यां
विशेषः पुण्यपापयोः ।
हेतु शुभाशुभ भावों कायें चैव सुखासुखे ।। १०३ ।। संसारकारणत्वस्य
द्वयोविशेषतः ।
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न नाम निश्चयेनास्ति विशेष पुण्यपापयोः ॥ १०४ ॥
हेतु और कार्यको विशेषतासे पुण्य और पापमें भेद है । पुण्यका हेतु शुभ भाव है और पापका हेतु अशुभ भाव है। पुण्य का कार्य सुख है और पाप का कार्य दुःख है । किन्तु पुण्य और पाप दोनों हो समानरूपसे संसार के कारण है। अतः निश्चयनयसे पुष्प और पापमें कोई भेद नहीं है ||