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________________ तत्त्वार्थसार शराबचन्द्रशालाविद्रव्यावष्टम्भयोगतः । अल्पो महांश्च दीपस्य प्रकाश जायते यथा ।। १७ ।। संहारे च विस च तथात्मानात्मयोगप्तः । तबभावात्तु मुक्तस्य न संहारविसपणे ॥ १८ ॥ तसार अधि० ८ दृष्टस्थाच्च निगलादिवियोगे देवदसाद्यवस्थानवत् ॥ १८ ॥ त० रा. वा०प० ६४४ कस्यचिन्छृङ्खलामोक्ष तत्रायस्थानदर्शनात । अवस्याने न मुक्तानामुर्चवज्यात्मकस्वत: ।। १९ ॥ त स्रा० अघि ८ तत्वार्थसूत्र दशमाध्यायके अन्तिम सूत्रमें राजवातिककारने 'उ च' कहकर जो ३३ श्लोक उद्धृत किये हैं उनमें प्रारम्भके १७ श्लोक-सम्यक्त्वज्ञानचारित्रसंयुक्तस्यास्मनो मृशम्-तत्त्वार्थसारके अङ्ग धन गये हैं। ये सब श्लोक कुछ हेरफेरके साथ वाचक उमास्वातिके तत्त्वार्याधिगमभाष्य में भी पाये जाते हैं। जान पड़ता है अकलक स्वामीने 'उक्तं च' कहकर उन्हें अपने ग्रन्थमें उद्धृत किया है और उनमेंसे १७ श्लोकोंको तत्वार्थसारकारने अपने ग्रन्थका अङ्ग बना लिया है। १७ हो नहीं, बोच में 'जानावरणहानान्ते केवलज्ञानशालिनः । दर्शनावरणच्छेदाध केवलदर्शन: ॥' इत्यादि । श्लोक अग्य लिखकर उसके बाद तादात्म्यावृपयुक्तास्ते केवलज्ञानदर्शने'-आदि १२ श्लोक और भी तत्त्वार्थसारके अङ्ग बन गये है। ये ३३ श्लोक जयधवलामें भी पाये जाते हैं, अतः फिससे किसने लिये, इसका निर्णय अपेक्षित है। (१) नयमाधिकारमें ग्रन्थका उपसंहार करते हुए कहा गया है कि प्रमाण, नय, निक्षेप तथा निर्देश आदिके द्वारा सात तत्त्वोंको जानकर मोक्षमार्गका आश्रय लेना चाहिये । निश्चय और व्यवहारके भेदो मोक्षमार्ग दो प्रकारका है। उनमें निश्चयमोक्षमार्ग साध्य है और व्यवहार मोक्षमार्ग साधन है । अपने शुद्ध आत्माका जो श्रद्धा, ज्ञान तथा उपेक्षण-पागोषसे रहित प्रवर्तन है वह निश्चयमोलमार्ग है और पर आत्माओंका जो श्रद्धान आदि है वह व्यवहारमोक्षमार्ग है 1 व्यवहारमोम्पमार्ग अन्त में चलकर निश्चयमोक्षमार्गमें विलीन हो जाता है और उससे साक्षात् मोक्षको प्राप्ति होतो है, अतः मोक्षप्राप्तिका साक्षात कारण निश्चयमोक्षमार्ग है। म्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्गका साधक होने के कारण परम्परासे मोक्षमार्ग है। कानी जोद अपने पदके अनुरूप निश्चय और व्यवहार दोनों मोनमागोको अपनाता है। जो केवल निश्चय मोक्षमार्गको ही सारभूत जानकर व्यवहारमोक्षमार्गको छोड़ देता है उसे ममतचन्द्रस्वामोने पुरुषार्थसिद्धयुपायमें बाल-अज्ञानी की संज्ञा दी है । यथा
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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