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________________ ३० तत्त्वार्थसार गाथाओं और तत्त्वार्थसारके इलोकोंका अवतरण मागेके स्तम्भ 'तत्त्वार्थसारका प्रतिपाद्य विषय और उसका मूलाधार' में करेंगे। उससे सिद्ध हो जायगा कि तत्त्वार्थसारके ये श्लोक प्राकृतपंचसंग्रहसे अनुप्राणित है न कि अमितगतिके संस्कृतपंचसंग्रहो । अमितगतिने अपना पनसंग्रह वि० सं० १०७३ में पूर्ण किया है और अमृतरन्द्रका समय विक्रम को १० वीं शताब्दीका उत्तरार्ध है, ऐसा निश्चित समझना चाहिये । तत्त्वार्थसारका प्रतिपाद्य विषय और उसका आधार (१) प्रथमाधिकारमें तत्त्वार्थसार ग्रंथको अमृत चन्द्रस्वामीने मोक्षका प्रकाश करनेवाला एक प्रमुख दीपक बतलाया है, क्योंकि इसमें युक्ति और आगमसे सुनिश्चित सम्बग्दर्शत, सन्यास या प्रनिगदित किया गया है। सभ्यग्दर्शनादिका स्वरूप बतलाते हुए उन्होंने उनके विषयभूत जीवादि सात तत्त्वोंका विशद वर्णन किया है। उन्होंने कहा है कि जीव, अजीव, आलय, बन्ध, संघर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व है। इनमें जीवतत्त्व उपादेय है और अजीवतत्व हेय है। अजीवका जीवके साथ सम्बन्ध क्यों होता है, इसका कारण बतलानेके लिये आसवका और अजीव का सम्बन्ध होनेसे जीवको क्या दशा होती है, यह बतलाने के लिये बन्धका कथन है। हेग-अजीवतत्वका संबन्ध जीवसे कैसे छुटे, यह बतलाने के लिये संवर और निर्जरा का कथन है और हेय- अजीवका सम्बन्ध छुटनेपर जीवकी क्या दशा होती है, यह बतलाने के लिये मोक्षतत्वका वर्णन है। इन्हीं सात तत्वोंको जानने के लिये उन्होंने नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ये चार निक्षेप तथा प्रमाण और नयोंका विस्तारसे वर्णन किया है। प्रमाणके वर्णनमें मतिज्ञान थादि पांच सम्यग्ज्ञानोंका विस्तारके साथ निरूपण किया है। प्रथम अधिकारके अन्त में निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान तथा सत्', संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पवहुत्व अनुयोगोंका भी उल्लेख किया है 1 उन्होंने कहा है कि मोक्षमार्गको प्राप्त करनेका इच्छुक मनुष्य नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके द्वारा न्यस्त-व्यवहारको प्राप्त एवं स्याद्वादमें स्थित सात तत्वोंके समूह को निर्देशादि उपायोंके द्वारा सबसे पहले जानना चाहिये। वास्तव में जीवादि तत्त्व ही क्यों, संसारके किसी भो पदार्थको जानने का क्रम निर्देश आदिसे ही शुरू होता है । उदाहरणके लिए किसोके सामने कोई ऐसा पदार्थ रक्खा जावे जिसे उसने आज तक देखा नहीं था। उस पदार्थको देखते हो देखनेवालेके मुखसे सर्वप्रथम यही निकलता है कि यह क्या है ? इस प्रश्नका उत्तर निर्देश देता है अर्थात उस पवार्थका नाम और स्वरूप बतलाता है । देखनेवालेके मुखसे दूसरा प्रश्न यह निकलता है कि यह पदार्थ किसका है ? अर्थात् इसका स्वामी कोन है ? इसका उत्तर स्वामित्व देता है। १. अथ तस्त्रार्थसारोऽयं मोक्षमार्गकदीपकः । मुमुक्षणो हितार्थाय प्रस्पष्टमभिधीयते ॥२॥ त. सा.
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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