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________________ प्रस्तावना . १०५५ वि० सं०से पूर्ववर्ती है। साथ ही तत्त्वानुशासनको प्रस्तावना पृष्ठ ३३ पर श्री पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने अमृतचन्द्ररारिका समय दशवीं शताब्दीका उत्तराचं निश्चित करते हुए पट्टावली में उनके पट्टारोहणका समय जो वि. सं. १६२ दिया है उसे ठीक बतलाया है। अब विचारणीम बात यह है कि तत्त्वार्थसारमें कितने हो श्लोक अमितगतिके संस्कृत पञ्चसंग्रहके छाया-प्रतिच्छायारूप पाये जाते हैं। जैसे यवनालिमसूररातिमुक्तकेन्द्रसनिभाः । श्रोत्राक्षिप्राणजिम्लाः स्युः स्पर्शनेऽनेकघा कृतिः ॥१४३॥ पंसं. यवनालिमसूरातिमुक्तेन्द्रर्धसमा मात् । श्रोत्राक्षिप्राणजिह्वाः स्युः स्पर्शन नकसंस्थितिः ।। ५० ॥ त. सा: जलूफाशुक्तिशम्बूकगण्ड्रपरकनिकाः जठरकृमिशताधा दीन्द्रिया वेहिनो मताः ।। १४.७ ॥ पं० सं० शम्बूकः शङ्खशुक्तिर्वा गण्डूपवकपदकाः । कुक्षिकृम्यादयश्चते द्वीन्द्रियाः प्राणिनो मताः ॥५३॥ त सा. कुन्थ: पिपीलिका मुभी यूका मत्कुणवृश्चिकाः । मकोटकेन्द्रगोपाद्यास्त्रोन्निया देहिनो मताः ॥१४७॥ पं० सं० कुन्युः पिपीलिका कुम्भी वृश्चिकश्चन्द्रगोपकः । घुणमत्कुणमूकाधास्त्रीन्द्रियाः सन्ति जन्सयः ॥५४॥ त० सा० पतङ्गाः मशका दंशा मक्षिका कोटगर्भुतः । प्रत्तिका चञ्चरीकाधाश्चतुरक्षाः शरीरिणः ।।१४९॥ पं० सं० मथुपः कोटको वंशमशको मक्षिकास्तथा । वरटो शलभाद्याश्च भवन्ति चतुरिन्नियाः ।।५५।। त. सा. इसी प्रकार पथिवीके भेद बतलानेवाले श्लोक भो छाया-प्रतिछायारूप है 1 तत्वार्थसारकारके ये इलोक क्या अमितगति के संस्कृत पञ्चसंग्रहसे अनुप्राणित हैं या पश्वसंग्रहके एलोक तत्त्वार्थसारसे अनुप्रापित हैं। पंचसंग्रहके कर्ता अमितगति विक्रमकी ११ वीं शताब्दीके तृतीय चरणके विद्वान् है । तुलनात्मक अध्ययन करनेपर मालूम होता है कि तत्त्वार्थसारके कर्ता अमृत चन्द्र के पुरुषार्थ सिद्ध युपायके कितने ही श्लोकोंसे अस्तिगतिप्रावकाचारके श्लोक अनुप्राणित हैं । अत: अमितगति अमृतचन्द्रसे परवर्ती है, पूर्ववर्ती नहीं । तत्त्वार्थसारके उल्लिखित इलोकोंका सादृश्य अमितगतिके पंचसंग्रहगत श्लोकोंसे जो मिलता है उसका कारण यह है कि ये सभी श्लोक प्राकृतपञ्चसंग्रहके संस्कृत छायारूप है । अमितगतिफे पंचसंग्रहका मूल आधार भी वही प्राकृतपंचसंग्रह है । इन सम १. देखो, जनसंदेश शोधांक ५ में पं. कैलाशचन्द्रजीका लेख
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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